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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒त्याया॑तमश्विना ति॒रो विश्वा॑ अ॒हं सना॑। दस्रा॒ हिर॑ण्यवर्तनी॒ सुषु॑म्ना॒ सिन्धु॑वाहसा॒ माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ति॒ऽआया॑तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । ति॒रः । विश्वाः॑ । अ॒हम् । सना॑ । दस्रा॑ । हिर॑ण्यऽवर्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्तनी । सुऽसु॑म्ना । सिन्धु॑ऽवाहसा । माध्वी॒ इति॑ । मम॑ । श्रुत॑म् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यायातमश्विना तिरो विश्वा अहं सना। दस्रा हिरण्यवर्तनी सुषुम्ना सिन्धुवाहसा माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिऽआयातम्। अश्विना। तिरः। विश्वाः। अहम्। सना। दस्रा। हिरण्यवर्तनी इति हिरण्यऽवर्तनी। सुऽसुम्ना। सिन्धुऽवाहसा। माध्वी इति। मम। श्रुतम्। हवम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०-हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! एवं अश्वादि वेग- युक्त साधनों से सम्पन्न जनो ! ( अहं ) मैं ( सना ) सनातन से प्राप्त ( विश्वा ) समस्त ( तिरः ) सर्वतः श्रेष्ठ विद्यमान ज्ञान को प्राप्त करता हूं । आप दोनों (दस्रा ) दुःखों के नाश करने में समर्थ ( हिरण्य-वर्तनी ) हित और रमणीय मार्ग पर चलते हुए, ( सु-सुम्ना ) उत्तम सुख से युक्त (सिन्धु-वाहसा) प्रवाह से बहने वाली नदी के द्वारा अपनी नौका को लेजाने वाले केवट के समान सिन्धुवत् प्रवाह से ज्ञान देने वाले गुरु को प्राप्त हो कर ( माध्वी ) मधुर ज्ञान को मधुकरों के समान सेवन करते हुए (मम) मेरे (हवम्) ग्रहण योग्य और दातव्य ज्ञानोपदेश का (श्रुतम् ) श्रवण करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अवस्युरात्रेय ऋषि: ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द: – १, ३ पंक्ति: । २, ४, ६, ७, ८ निचृत्पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ९ विराट् पंक्तिः ।। नवर्चं सुक्तम् ।।

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