ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
त्वाम॑ग्ने॒ अति॑थिं पू॒र्व्यं विशः॑ शो॒चिष्के॑शं गृ॒हप॑तिं॒ नि षे॑दिरे। बृ॒हत्के॑तुं पुरु॒रूपं॑ धन॒स्पृतं॑ सु॒शर्मा॑णं॒ स्वव॑सं जर॒द्विष॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । अति॑थिम् । पू॒र्व्यम् । विशः॑ । शो॒चिःऽके॑शम् । गृ॒हऽप॑तिम् । नि । से॒दि॒रे॒ । बृ॒हत्ऽके॑तुम् । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । ध॒न॒ऽस्पृत॑म् । सु॒ऽशर्मा॑णम् । सु॒ऽअव॑सम् । ज॒र॒त्ऽविष॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने अतिथिं पूर्व्यं विशः शोचिष्केशं गृहपतिं नि षेदिरे। बृहत्केतुं पुरुरूपं धनस्पृतं सुशर्माणं स्ववसं जरद्विषम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। अतिथिम्। पूर्व्यम्। विशः। शोचिःऽकेशम्। गृहऽपतिम्। नि। सेदिरे। बृहत्ऽकेतुम्। पुरुऽरूपम्। धनऽस्पृतम्। सुऽशर्माणम्। सुऽअवसम्। जरत्ऽविषम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - गृहपतिवत् उसका वर्त्तन । प्रजाओं द्वारा राजा की चाह । और प्रजाओं: के प्रति उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०—जिस प्रकार अग्नि तेजोमय होने से वा गीला न होने से अग्नि है, व्यापक होने से 'अतिथि' है । किरणों या ज्वालाओं को केशों के समान धारण करने से 'शोचिष्केश' है, दीप वा चूल्हे की आग के रूप में गृह का पालक होने से 'गृहपति' है। बहुत प्रकाश होने वा बड़ी धूम-ध्वजा होने से 'बृहत्केतु' है, नाना रुचिकर रूप होने से 'पुरुरूप', ऐश्वर्य धन देने से 'धनस्पृत्', अच्छी प्रकार रोग जन्तुओं का नाशक होने से 'सुशर्मा' और देहों और जन्तुओं की आग्नेयास्त्रादि से रक्षा करने से 'सु-अवस्', सर्पादि के विष का नाशक होने से 'जरद्-विष' है और लोग उसी को स्थापित करते और आश्रय लेते हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) विद्वन् ! तेजस्विन् ! (विशः ) लोग जो तेरे अधीन तेरे आश्रय में प्रवेश करते हैं वे ( अतिथिम् ) अतिथि के तुल्य सर्वार्पण से सत्कार योग्य, (पूर्व्यम् ) पूर्वाचार्यों से उपदिष्ट वा सबसे प्रथम अग्रसर, सबसे पूर्व भोजनादि सत्कार पाने योग्य, (शोचिः-केशं) तेजों किरणों को केशवत् धारण करने वाले वा गुह्यांगों में केश लोमों को वीर्यस्खलनादि द्वारा अपवित्र न करने वाले, निष्ट ब्रह्मचारी, (गृह-पतिम् ) गृह के स्वामी, (बृहत्-केतुम् ) बड़े ज्ञान वा ध्वजा वाले ( पुरु-रूपं ) जयों के बीच उत्तम रूपवान् (धन-स्पृहं) ऐश्वर्य की कामना करने वाले, (सु-शर्माणं) उत्तम सुख, गृह से युक्त (सु-अवसं) उत्तम रक्षक वा ज्ञानी ( जरद्विषं ) शत्रु रूप विष को शमन करने वाले, वा व्यापक विस्तृत ज्ञान में उपदेश करने वाले ( त्वाम् ) तुझको प्राप्त करके ( नि षेदिरे ) उत्तम आसन पर स्थापित करें और स्वयं भी नियम से व्यवस्थित हों। (२) सूर्य, विद्युत् मेघ द्वारा जल गिराने से 'जरद्विष' है वा वह भी विषापहारी हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इष आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द:- १, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ४, ७ निचृज्जगती । ६ विराड्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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