ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
त्वाम॑ग्ने॒ मानु॑षीरीळते॒ विशो॑ होत्रा॒विदं॒ विवि॑चिं रत्न॒धात॑मम्। गुहा॒ सन्तं॑ सुभग वि॒श्वद॑र्शतं तुविष्व॒णसं॑ सु॒यजं॑ घृत॒श्रिय॑म् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । मानु॑षीः । ई॒ळ॒ते॒ । विशः॑ । हो॒त्रा॒ऽविद॑म् । विवि॑चिम् । र॒त्न॒ऽधात॑मम् । गुहा॑ । सन्त॑म् । सु॒ऽभ॒ग॒ । वि॒श्वऽद॑र्शतम् । तु॒वि॒ऽस्व॒णस॑म् । सु॒ऽयज॑म् । घृ॒त॒ऽश्रिय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने मानुषीरीळते विशो होत्राविदं विविचिं रत्नधातमम्। गुहा सन्तं सुभग विश्वदर्शतं तुविष्वणसं सुयजं घृतश्रियम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। मानुषीः। ईळते। विशः। होत्राऽविदम्। विविचिम्। रत्नऽधातमम्। गुहा। सन्तम्। सुऽभग। विश्वऽदर्शतम्। तुविऽस्वनसम्। सुऽयजम्। घृतऽश्रियम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
विषय - गृहपतिवत् उसका वर्त्तन । प्रजाओं द्वारा राजा की चाह । और प्रजाओं: के प्रति उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०—यह अग्नि, आहुति लेने से होत्रावित् ! पदार्थों को पृथक् २ विश्लिष्ट करने से 'विविचि' है, रत्नों का धारक, रम्य प्रकाश का पोषक होने से 'रत्नधा', घृत का पाक या सेवन करने से 'घृतश्री' है । उसी प्रकार हे(अग्ने) ज्ञानवन् ! प्रतापवन् ! विद्वन् ! राजन् ! ( मानुषीः विशः ) मनुष्य प्रजाएं (होत्रा विदं ) उत्तम वेद वाणी जो गुरु द्वारा शिष्य के प्रति देने और शिष्य द्वारा गुरु से लेने योग्य होने से 'होत्रा' है उसको जानने वाले ( विविचिम् ) सत्-असत्, अर्थ-अनर्थ, धर्माधर्म का विवेक करने वाले, ( रत्न-धातमम् ) रमणीय गुणों और उत्तम रत्नों और राष्ट्र में, गृह में, नररत्न, पुत्ररत्न, स्त्री-रत्न आदि को उत्तम रीति से धारण वा पोषण करने हारे, (गुहा सन्तं) बुद्धि, वाणी में सुरक्षित, गृह में विद्यमान, (विश्व-दर्शतं) सबको देखनेवाले वा सब में दर्शनीय (तुवि-स्वनसं) बहुत अधिक उपदेशमय शब्दों को जानने वाले, ( सु-यजं ) उत्तम दानशील, सत्संगयोग्य, ( घृत-श्रियम् ) दीप्तिमय कान्ति शोभा से युक्त ( त्वाम् ) तुझ को ही हे ( सुभग ) ऐश्वर्य वाले ! ( ईडते ) चाहते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इष आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द:- १, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ४, ७ निचृज्जगती । ६ विराड्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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