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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
दृ॒ळ्हा चि॒द्या वन॒स्पती॑न्क्ष्म॒या दर्ध॒र्ष्योज॑सा। यत्ते॑ अ॒भ्रस्य॑ वि॒द्युतो॑ दि॒वो वर्ष॑न्ति वृ॒ष्टयः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठदृ॒ळ्हा । चि॒त् । या । वन॒स्पती॑न् । क्ष्म॒या । दर्ध॑र्षि । ओज॑सा । यत् । ते॒ । अ॒भ्रस्य॑ । वि॒ऽद्युतः॑ । दि॒वः । वर्ष॑न्ति । वृ॒ष्टयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दृळ्हा चिद्या वनस्पतीन्क्ष्मया दर्धर्ष्योजसा। यत्ते अभ्रस्य विद्युतो दिवो वर्षन्ति वृष्टयः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठदृळ्हा। चित्। या। वनस्पतीन्। क्ष्मया। दर्धर्षि। ओजसा। यत्। ते। अभ्रस्य। विऽद्युतः। दिवः। वर्षन्ति। वृष्टयः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
विषय - उसका भूमिवत् राजशक्ति के तुल्य वर्णन ।
भावार्थ -
भा०—जिस प्रकार पृथिवी ( दृढ़ा चित् ) दृढ़ होकर (क्ष्मया ) सामर्थ्य से ( ओजसा ) और बल से ( वनस्पतीन् दर्धर्त्ति ) बड़े २ वृक्षों को धारे रहती है उसी प्रकार हे स्त्री वा राजशक्ति ( या ) जो तू (दृढा) दृढ़ रहकर ( वनस्पतीन् ) ऐश्वर्यों के पालक महावृक्षवत् आश्रय दाता पुरुषों को ( ओजसा ) पराक्रम, तेज से और ( क्ष्मया ) क्षमाशीलता से वा भूमि के बल से (दर्धर्षि) धारण कर रही है और ( यत् ) जो (ते) तेरे ( अभ्रस्य ) मेघवत् सुखप्रद धन की ( विद्युतः) विशेष कान्ति वाली (वृष्टयः) सुखों की वृष्टियें (दिवः ) आकाश से मेघ की बिजुली युक्त वर्षाओं के समान तेरी कामना और सद्व्यवहार से ( वर्षन्ति ) बरसती हैं इससे तू अतिपूज्य है । इति एकोनविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः। पृथिवी देवता ॥ छन्द: – १, २ निचदनुष्टुप् । ३ विराडनुष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ।।
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