ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तेजि॑ष्ठा॒ यस्या॑र॒तिर्व॑ने॒राट् तो॒दो अध्व॒न्न वृ॑धसा॒नो अ॑द्यौत्। अ॒द्रो॒घो न द्र॑वि॒ता चे॑तति॒ त्मन्नम॑र्त्योऽव॒र्त्र ओष॑धीषु ॥३॥
स्वर सहित पद पाठतेजि॑ष्ठा । यस्य॑ । अ॒र॒तिः । व॒ने॒ऽराट् । तो॒दः । अध्व॑न् । न । वृ॒ध॒सा॒नः । अ॒द्यौ॒त् । अ॒द्रो॒घः । न । द्र॒वि॒ता । चे॒त॒ति॒ । त्मन् । अम॑र्त्यः । अ॒व॒र्त्रः । ओष॑धीषु ॥
स्वर रहित मन्त्र
तेजिष्ठा यस्यारतिर्वनेराट् तोदो अध्वन्न वृधसानो अद्यौत्। अद्रोघो न द्रविता चेतति त्मन्नमर्त्योऽवर्त्र ओषधीषु ॥३॥
स्वर रहित पद पाठतेजिष्ठा। यस्य। अरतिः। वनेऽराट्। तोदः। अध्वन्। न। वृधसानः। अद्यौत्। अद्रोघः। न। द्रविता। चेतति। त्मन्। अमर्त्यः। अवर्त्रः। ओषधीषु ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
विषय - घोड़ों पर चाबुक के समान राजा वा नायक की स्थिति । उसे अद्रोही, चुस्त होने का उपदेश ।
भावार्थ -
जिस प्रकार अग्नि का (अरतिः तेजिष्टा ) बन या जंगल में लगना ही अति तीक्ष्ण है और जैसे अग्नि (अध्वन् न तोदः) हण्टर के समान मार्ग में बढ़ता है उसी प्रकार ( यस्य ) जिसका ( अरतिः ) आगमन ही ( तेजिष्टा ) अति तेज वा प्रभाव से युक्त और जो ( राट् ) स्वयं तेजस्वी सम्राट होकर ( तोद: ) पशुओं पर चाबुक के समान ( अध्वन् ) मार्ग में ( वृधसान: ) चलने वाले प्रजाजनों को आगे बढ़ाने वाला, उनको उन्नति पथ पर लेजाने हारा होकर ( अद्यौत्) चमकता है, वह (अद्रोव:) प्रजा का द्रोह न करने हारा होकर ( त्मन्) अपने आप में ही स्वतः ( द्रविता न ) वेग से जाते रथ के समान वेगवान् होकर ( ओषधीषु ) ओषधियों में अग्निवत् प्रजाओं में ( अवर्त्र: ) किसी से निवारण न किया जाकर (चेतति ) सबको चेताता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्ति: ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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