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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स मा॒तरा॒ सूर्ये॑णा कवी॒नामवा॑सयद्रु॒जदद्रिं॑ गृणा॒नः। स्वा॒धीभि॒र्ऋक्व॑भिर्वावशा॒न उदु॒स्रिया॑णामसृजन्नि॒दान॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मा॒तरा॑ । सूर्ये॑ण । क॒वी॒नाम् । अवा॑सयत् । रु॒जत् । अद्रि॑म् । गृ॒णा॒नः । सु॒ऽआ॒धीभिः॑ । ऋक्व॑ऽभिः । वा॒व॒शा॒नः । उत् । उ॒स्रिया॑णाम् । अ॒सृ॒ज॒त् । नि॒ऽदान॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मातरा सूर्येणा कवीनामवासयद्रुजदद्रिं गृणानः। स्वाधीभिर्ऋक्वभिर्वावशान उदुस्रियाणामसृजन्निदानम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मातरा। सूर्येण। कवीनाम्। अवासयत्। रुजत्। अद्रिम्। गृणानः। सुऽआधीभिः। ऋक्वऽभिः। वावशानः। उत्। उस्रियाणाम्। असृजत्। निऽदानम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    ( सः ) वह विद्वान् तथा बलवान् पुरुष ( सूर्येण ) सूर्य के समान तेजस्वी, ज्ञानवान् पुरुष द्वारा ( कवीनाम् ) क्रान्तदर्शी विद्वानों के ( मातरा ) माता पिता, उत्पादक राष्ट्र के नर नारी जनों को ( अवास-यत् ) सुखपूर्वक बसावे, अर्थात् भावी में उत्तम सन्तानोत्पादक माता पिता बनने वाले बालक बालिकाओं की राजा तेजस्वी गुरु के समीप ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने की व्यवस्था करे। और वह स्वामी वा गुरु (गुणान:) उपदेश करता हुआ (अद्रिं रुजत्) अभेद्य अज्ञान को, मेघ को सूर्यवत् नाश करे । जिस प्रकार ( वावशानः ) कान्ति से चमकता हुआ सूर्य (सुआधीभिः ऋक्वभिः उस्त्रियाणां निदानम् उत् असृजत् ) उत्तम जलधारक तेजोयुक्त किरणों द्वारा कान्तियों का और मेघों द्वारा जल-धाराओं का दान कराता है उसी प्रकार विद्वान् पुरुष वह ( वावशानः ) निरन्तर कामना करता या चाहता हुआ, स्नेहवान् होकर ( स्वाधीभिः ) उत्तम ध्यान और धारणा वाले विद्वानों, (ऋक्वभिः) अर्चना योग्य उपदेष्टा, मन्त्रज्ञ पुरुषों द्वारा ( उस्त्रियाणाम् ) ज्ञान-वाणियों के ( निदानम् ) निश्चित रूप दान ( उद् असृजत् ) करे, इसी प्रकार राजा, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष द्वारा ( अद्रिं ) अभेद्य शत्रु का नाश करता हुआ, शासन करे, विद्वानों के माता पिता रूप सभा, सभापति दोनों की स्थापना करे । उत्तम बुद्धिमान् विद्वान् पुरुषों से ( उस्त्रियाणां निदानम् ) वाणियों के निर्णय, तथा भूमियों के सुप्रबन्ध ( उत् असृजत् ) उत्तम रीति से करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ भुरिक पंक्ति: । २ स्वराट् पंक्ति:। ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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