ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अपा॑दि॒त उदु॑ नश्चि॒त्रत॑मो म॒हीं भ॑र्षद्द्यु॒मती॒मिन्द्र॑हूतिम्। पन्य॑सीं धी॒तिं दैव्य॑स्य॒ याम॒ञ्जन॑स्य रा॒तिं व॑नते सु॒दानुः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑त् । इ॒तः । उत् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । चि॒त्रऽत॑मः । म॒हीम् । भ॒र्ष॒त् । द्यु॒ऽमती॑म् । इन्द्र॑ऽहूतिम् । पन्य॑सीम् । धी॒तिम् । दैव्य॑स्य । याम॑न् । जन॑स्य । रा॒तिम् । व॒न॒ते॒ । सु॒ऽदानुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादित उदु नश्चित्रतमो महीं भर्षद्द्युमतीमिन्द्रहूतिम्। पन्यसीं धीतिं दैव्यस्य यामञ्जनस्य रातिं वनते सुदानुः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअपात्। इतः। उत्। ऊँ इति। नः। चित्रऽतमः। महीम्। भर्षत्। द्युऽमतीम्। इन्द्रऽहूतिम्। पन्यसीम्। धीतिम्। दैव्यस्य। यामन्। जनस्य। रातिम्। वनते। सुऽदानुः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - उत्तम शासक का वर्णन, उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
(चित्र-तमः) अति आश्चर्यजनक कार्य करने हारा, अति पूज्य, सबसे उत्तम ज्ञानदाता, राजा और विद्वान् पुरुष ( नः ) हमें ( इतः ) प्राप्त होकर (अपात् उत् उ) सदा पालन करे । वह ( मही ) पूज्य, बड़ी ( धुमतीम् ) तेजोयुक्त ( इन्द्र-हूतिम्) ऐश्वर्य की देने वाली भूमि और ज्ञान प्रकाश से युक्त विद्वान् द्वारा उपदेश करने योग्य बाणी को भी ( अर्षत् ) पालन और धारण करे । वह (सु-दानुः ) उत्तम दाता होकर ( दैव्यस्य जनस्य ) मनुष्यों और राजा के हितकारी प्रजाजन के ( यामम् ) नियन्त्रण करने के शासन कार्य में (पन्यसीं धीतिं ) स्तुति योग्य धारण, सामर्थ्य, स्तुति प्राप्त करे और (रातिं ) दानशीलता को भी ( वनते ) सेवन करे, दान योग्य धन प्रदान करे। परमेश्वर वा अत्मापक्ष में - (अपात्) पाद आदि अवयवों से रहित वह अद्भुतकर्मा है वह, द्युलोक सहित भूमि को धारण करता है, इत्यादि ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २, ३, ५, निचृत् त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
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