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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
यस्य॑ तीव्र॒सुतं॒ मदं॒ मध्य॒मन्तं॑ च॒ रक्ष॑से। अ॒यं स सोम॑ इन्द्र ते सु॒तः पिब॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ती॒व्र॒ऽसुत॑म् । मद॑म् । मध्य॑म् । अन्त॑म् । च॒ । रक्ष॑से । अ॒यम् । सः । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । सु॒तः । पिब॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य तीव्रसुतं मदं मध्यमन्तं च रक्षसे। अयं स सोम इन्द्र ते सुतः पिब ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। तीव्रऽसुतम्। मदम्। मध्यम्। अन्तम्। च। रक्षसे। अयम्। सः। सोमः। इन्द्र। ते। सुतः। पिब ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
विषय - राजा का अभिषेक ।
भावार्थ -
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( यस्य ) जिसके ( तीव्रसुतम् ) तीव्र, वेग से कार्य करनेवाले, अप्रमादी पुरुषों से शासित, (मदम्) हर्षदायक ( मध्यम् अन्तम् ) राष्ट्र के मध्य और सीमाप्रान्त की भी तू ( रक्षसे ) रक्षा करने में समर्थ है ( अयंः सः सोमः ) वह यह ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र वा प्रजाजन (ते सुतः) तेरे ही पुत्रवत् हैं । तेरे लिये ही वह (सुतः) अन्न वा औषधि रसवत् तैयार वा अभिषेक किया गया है। तू उसका (पिब) पुत्रवत् पालन कर वा, औषधि अन्नादिवत् उपभोग कर । उससे अपनी रक्षा और पोषण कर ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
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