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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 24
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं द्यावा॑पृथि॒वी वि ष्क॑भायद॒यं रथ॑मयुनक्स॒प्तर॑श्मिम्। अ॒यं गोषु॒ शच्या॑ प॒क्वम॒न्तः सोमो॑ दाधार॒ दश॑यन्त्र॒मुत्स॑म् ॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वि । स्क॒भा॒य॒त् । अ॒यम् । रथ॑म् । अ॒यु॒न॒क् । स॒प्तऽर॑श्मिम् । अ॒यम् । गोषु॑ । शच्या॑ । प॒क्वम् । अ॒न्तरिति॑ । सोमः॑ । दा॒धा॒र॒ । दश॑ऽयन्त्रम् । उत्स॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं द्यावापृथिवी वि ष्कभायदयं रथमयुनक्सप्तरश्मिम्। अयं गोषु शच्या पक्वमन्तः सोमो दाधार दशयन्त्रमुत्सम् ॥२४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। द्यावापृथिवी इति। वि। स्कभायत्। अयम्। रथम्। अयुनक्। सप्तऽरश्मिम्। अयम्। गोषु। शच्या। पक्वम्। अन्तरिति। सोमः। दाधार। दशऽयन्त्रम्। उत्सम् ॥२४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 24
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4

    भावार्थ -

    ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी दोनों को जिस प्रकार प्रभु परमेश्वर (वि स्कभायत् ) विविध प्रकार से थाम रहा है उसी प्रकार ( अयम् ) यह राजा भी ( द्यावा पृथिवी ) तेजस्वी पुरुषों और भूमि वासी अन्य प्रजाओं को (वि स्कभायत् ) विविध उपायों से वश करे । (सप्त-रश्मिं रथम् ) उसी प्रकार सात किरणों वाले सूर्य के समान सात रासों से युक्त रथ, वा सात प्रकृतियों से युक्त सर्व सुखप्रद राज्य को (अयुनक् ) वश करे । ( सोमः ) सर्वोत्पादक प्रभु जैसे ( शच्या ) वाणी द्वारा ( गोषु ) वेदवाणियों के भीतर ( पक्कम् ) परिपक्व ज्ञान को ( दाधार ) धारण कराता है और जिस प्रकार वह सर्वप्रेरक ( दशयन्त्रम् उत्सम् ) दश यन्त्रों से युक्त कूप के समान दशों दिशाओं से नियन्त्रित ( उत्सम् ) इस जगत् को धारण करता है उसी प्रकार ( अयं ) यह ( सोमः ) अभिषेक योग्य राजा (शच्या ) अपनी शक्ति वा आज्ञा के वल पर ( गोषु अन्तः) भूमियों के बीच ( पक्वम् ) पके धान्य को (दाधार) ग्रहण करे, और ( दश-यन्त्रम् उत्सम् दाधार ) दश यन्त्रों से युक्त कूप आदि भी बनवावे । वा राष्ट्र को ( दश-यन्त्रम् उत्सम् ) दश विद्वानों द्वारा नियन्त्रित उत्तम राष्ट्र को धारण करे। अध्यात्म में दश, यन्त्र उत्स, यह देह दश इन्द्रियगण से युक्त है । इसमें इन्द्र आत्मा है । इति विंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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