ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 17
स्ती॒र्णे ब॒र्हिषि॑ समिधा॒ने अ॒ग्नौ सू॒क्तेन॑ म॒हा नम॒सा वि॑वासे। अ॒स्मिन्नो॑ अ॒द्य वि॒दथे॑ यजत्रा॒ विश्वे॑ देवा ह॒विषि॑ मादयध्वम् ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठस्ती॒र्णे । ब॒र्हिषि॑ । स॒म्ऽइ॒धा॒ने । अ॒ग्नौ । सु॒ऽउ॒क्तेन॑ । म॒हा । नम॑सा । वि॒वा॒से॒ । अ॒स्मिन् । नः॒ । अ॒द्य । वि॒दथे॑ । य॒ज॒त्राः॒ । विश्वे॑ । दे॒वाः॒ । ह॒विषि॑ । मा॒द॒य॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तीर्णे बर्हिषि समिधाने अग्नौ सूक्तेन महा नमसा विवासे। अस्मिन्नो अद्य विदथे यजत्रा विश्वे देवा हविषि मादयध्वम् ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठस्तीर्णे। बर्हिषि। सम्ऽइधाने। अग्नौ। सुऽउक्तेन। महा। नमसा। विवासे। अस्मिन्। नः। अद्य। विदथे। यजत्राः। विश्वे। देवाः। हविषि। मादयध्वम् ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 17
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 7
विषय - यज्ञवर विद्वान् की अर्चना ।
भावार्थ -
( बर्हिषि स्तीर्णे ) यज्ञ में, यज्ञवेदिपर आसन कुशा आदि आस्तरण योग्य पदार्थ के बिछ जाने पर और (अग्नौ समिधाने ) अग्नि के प्रदीप्त होते हुए जिस प्रकार ( महा-सूक्तेन ) वेद के बड़े सूक्त से और ( महा नमसा ) बड़े नमस्कार, आदर वा अन्नादि पदार्थ से ( आविवासे) यज्ञ कर्म करता है उसी प्रकार ( बर्हिषि ) बड़े मान वृद्धि युक्त, (स्तीर्णे) बिछे आसन पर ( अग्नौ समिधाने ) अग्निवत् तेजस्वी राजा वा ज्ञानप्रकाश से युक्त विद्वान् के विराजने पर मैं (महा-नमसा) बड़े शक्ति, आदर से ( सूक्तेन ) उत्तम वचनों से उसकी (आ विवासे) सेवा शुश्रूषा करूं। हे ( यजत्राः ) यज्ञशील, ज्ञानदाता एवं सत्संगयोग्य पूज्य पुरुषो ! ( अद्य ) आज ( नः ) हमारे ( अस्मिन् विदथे ) उस यज्ञ में ( विश्वदेवा: ) आप सब विद्वान् जन ( हविषि ) अन्नादि से ( मादयध्वम् ) स्वयं भी तृप्त और हर्षित होवो और (नः मादयध्वम्) हमें भी तृप्त प्रसन्न करो । इति षोडशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वेदेवा देवताः ।। छन्दः – १, ४, १५, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३, ६, १३, १७ त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्ति: । ७, ८, ११ गायत्री । ९ , १०, १२ निचृद्गायत्री । १४ विराड् जगती ॥
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