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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सं वां॑ श॒ता ना॑सत्या स॒हस्राश्वा॑नां पुरु॒पन्था॑ गि॒रे दा॑त्। भ॒रद्वा॑जाय वीर॒ नू गि॒रे दा॑द्ध॒ता रक्षां॑सि पुरुदंससा स्युः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । वा॒म् । श॒ता । ना॒स॒त्या॒ । स॒हस्रा॑ । अश्वा॑नाम् । पु॒रु॒ऽपन्थाः॑ । गि॒रे । दा॒त् । भ॒रत्ऽवा॑जाय । वी॒र॒ । नु । गि॒रे । दा॒त् । ह॒ता । रक्षां॑सि । पु॒रु॒ऽदं॒स॒सा॒ । स्यु॒रिति॑ स्युः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं वां शता नासत्या सहस्राश्वानां पुरुपन्था गिरे दात्। भरद्वाजाय वीर नू गिरे दाद्धता रक्षांसि पुरुदंससा स्युः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। वाम्। शता। नासत्या। सहस्रा। अश्वानाम्। पुरुऽपन्थाः। गिरे। दात्। भरत्ऽवाजाय। वीर। नु। गिरे। दात्। हता। रक्षांसि। पुरुऽदंससा। स्युरिति स्युः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे ( नासत्या ) कभी असत्य का व्यवहार न करने वाले, एवं प्रमुख स्थान पर स्थित जनो ! ( वां ) तुम दोनों के ( अश्वानां ) अश्व सैन्यों के ( गिरे ) उपदेष्टा, वा शिक्षक के लिये ( पुरु-पन्थाः ) बहुतों को नाना प्रकार के जीवनोपाय रूप मार्ग देने में समर्थ, बहुतों को वृत्ति देने वाला राजा (शता सहस्रा) सैकड़ों और हज़ारों तक ( दात् ) दे । अथवा हे ( नासत्या ) सदा सत्य ज्ञान व्यवहार करने वाले राजा प्रजा वर्गों ( पुरुपन्थाः ) बहुत से मार्गों से सम्पन्न देश वा देश का राजा (State) ( गिरे ) विद्वान् ज्ञानवक्ता पुरुष के अधीन शिक्षा पाने के लिये (अश्वानां शता सहस्रा दात् ) अश्व-सवारों के सैकड़ों हज़ारों वा सैकड़ों विद्या के इच्छुक जन भी देवे । और हे ( वीर ) वीर पुरुष ! तू ( भरद्-वाजाय ) ज्ञान और बल को धारण करने वाले ( गिरे ) उपदेष्टा, शासक विद्वान् के सेवार्थ उसके अधीन ( दात् ) सैकड़ों सहस्रों अश्व सैन्य रक्खे जिससे हे ( पुरु-दंससा ) बहुत से उत्तम कर्म करने वाले राज प्रजावर्गो ! ( रक्षांसि ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुष सदा ( हताः स्युः ) दण्डित हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १ स्वराड्बृहती । २, ४, ६, ७ पंक्ति:॥ ३, १० भुरिक पंक्ति ८ स्वराट् पंक्तिः। ११ आसुरी पंक्तिः॥ ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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