ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
विश्वे॑षां वः स॒तां ज्येष्ठ॑तमा गी॒र्भिर्मि॒त्रावरु॑णा वावृ॒धध्यै॑। सं या र॒श्मेव॑ य॒मतु॒र्यमि॑ष्ठा॒ द्वा जनाँ॒ अस॑मा बा॒हुभिः॒ स्वैः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑षाम् । वः॒ । स॒ताम् । ज्येष्ठ॑ऽतमा । गीः॒ऽभिः । मि॒त्रावरु॑णा । व॒वृ॒धध्यै॑ । सम् । या । र॒श्माऽइ॑व । य॒मतुः॑ । यमि॑ष्ठा । द्वा । जना॑न् । अस॑मा । बा॒हुऽभिः॑ । स्वैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेषां वः सतां ज्येष्ठतमा गीर्भिर्मित्रावरुणा वावृधध्यै। सं या रश्मेव यमतुर्यमिष्ठा द्वा जनाँ असमा बाहुभिः स्वैः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठविश्वेषाम्। वः। सताम्। ज्येष्ठऽतमा। गीःऽभिः। मित्रावरुणा। ववृधध्यै। सम्। या। रश्माऽइव। यमतुः। यमिष्ठा। द्वा। जनान्। असमा। बाहुऽभिः। स्वैः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - मित्र वरुण । स्नेही दुःखवारक प्रधान पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे मनुष्यो ! ( विश्वेषां वः सताम् ) आप समस्त सज्जन पुरुषों के बीच ( ज्येष्ठ-तमा ) सबसे अधिक श्रेष्ठ ( मित्रा-वरुणौ ) मित्रवत् स्नेही और दुःखों के वारण करने वाले वे दोनों हैं जो ( द्वा ) दोनों मिलकर (असमौ) अन्यों के समान न रहकर, वा परस्पर भी आयु, और रूप, बल में समान न रहकर भी ( वावृधध्यै) राष्ट्र और कुल की वृद्धि करने के लिये ( यमिष्ठौ ) संयमशील होकर ( गीर्भि: ) अपने उपदेश वाणियों से ( जनान् सं यमतुः ) लोगों को नियम में रखते हैं। और जो ( बाहुभिः ) बाहुबलों से जनों को अपने वश करते हैं और जो दोनों ( स्वैः ) अपने धनों के बल से मनुष्यों को काबू करते हैं अर्थात् उत्तम ब्राह्मण, उत्तम क्षत्रिय, और उत्तम वैश्य तीनों ही वर्ण के स्त्री पुरुष सर्व श्रेष्ठ जानने योग्य हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ९ स्वराट् पंक्तिः। २, १० भुरिक पंक्तिः । ३, ७, ८, ११ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ।। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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