ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता हि॑र॒ण्यया॑ बा॒हू अ॑यंस्त॒ सव॑नाय सु॒क्रतुः॑। घृ॒तेन॑ पा॒णी अ॒भि प्रु॑ष्णुते म॒खो युवा॑ सु॒दक्षो॒ रज॑सो॒ विध॑र्मणि ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । हि॒र॒ण्यया॑ । बा॒हू इति॑ । अ॒यं॒स्त॒ । सव॑नाय । सु॒ऽक्रतुः॑ । घृ॒तेन॑ । पा॒णी इति॑ । अ॒भि । प्रु॒ष्णु॒ते॒ । म॒खः । युवा॑ । सु॒ऽदक्षः॑ । रज॑सः । विऽध॑र्मणि ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ष्य देवः सविता हिरण्यया बाहू अयंस्त सवनाय सुक्रतुः। घृतेन पाणी अभि प्रुष्णुते मखो युवा सुदक्षो रजसो विधर्मणि ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। स्यः। देवः। सविता। हिरण्यया। बाहू इति। अयंस्त। सवनाय। सुऽक्रतुः। घृतेन। पाणी इति। अभि। प्रुष्णुते। मखः। युवा। सुऽदक्षः। रजसः। विऽधर्मणि ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - सविता । सूर्यवत् उत्तम निपुण राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( देवः सविता ) प्रकाशमान सूर्य (हिरण्यया बाहू ) सबके हित और रमणीय ‘बाहू’ अर्थात् अन्धकार को बांधने वाले किरणों को ( इत् अयंस्त ) ऊपर थामता है और ( सु-दक्षः ) खूब दाहकारी होकर ( विधर्मणि ) अन्तरिक्ष में विद्यमान (रजसः अभि घृतेन प्रुष्णुने ) समस्त भुवनों को तेज से संतप्त करता वा जल से सेचन भी करता है उसी प्रकार ( स्यः देवः ) वह दानशील व्यवहारज्ञ, युद्धनिपुण राजा ( सविता ) शासक, ( सुक्रतुः ) उत्तम कर्म और बुद्धि से सम्पन्न होकर ( सवनाय) ऐश्वर्य की वृद्धि और शासन कार्य के सम्पादन के लिये ( हिरण्यया बाहू ) हित और सबको अच्छे लगने वाले, सुवर्ण से अलंकृत बाहुओं को तथा हिरण्य अर्थात् लोहे के बने, वा कान्तिमान् तेजस्वी शस्त्रास्त्रों से युक्त, बाहुवत् शत्रु के पीड़क बलवान् सैन्यों को भी ( उत् अयंस्त ) उत्तम रीति से उठाता, उनको नियन्त्रण में रखने में समर्थ होता है, वही ( मखः ) यज्ञ के समान पूज्य, उपकारक ( युवा ) बलवान्, ( सु-दक्षः ) उत्तम कार्यकुशल, होकर (विधर्मणि) विविध प्रजाओं के धारण करने के कार्य में ( रजसः अभि ) लोक समूह के प्रति (घृतेन ) तेज से ( पाणी ) अपने हाथों को ( प्रुष्णुते ) प्रतप्त करता है, जिनसे वह दुष्टों का दमन कर प्रजा का शासन करने में समर्थ हो ।
टिप्पणी -
( प्रुष्णुते ) प्रुष प्लष दाहे । भ्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्दः – १ जगती । २, ३ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ।।
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