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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः देवता - पर्जन्यः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒स्रो वाच॒: प्र व॑द॒ ज्योति॑रग्रा॒ या ए॒तद्दु॒ह्रे म॑धुदो॒घमूध॑: । स व॒त्सं कृ॒ण्वन्गर्भ॒मोष॑धीनां स॒द्यो जा॒तो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः । वाचः॑ । प्र । व॒द॒ । ज्योतिः॑ऽअग्राः । याः । ए॒तत् । दु॒ह्रे । म॒धु॒ऽदो॒घम् । ऊधः॑ । सः । व॒त्सम् । कृ॒ण्वन् । गर्भ॑म् । ओष॑धीनाम् । स॒द्यः । जा॒तः । वृ॒ष॒भः । रो॒र॒वी॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो वाच: प्र वद ज्योतिरग्रा या एतद्दुह्रे मधुदोघमूध: । स वत्सं कृण्वन्गर्भमोषधीनां सद्यो जातो वृषभो रोरवीति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः । वाचः । प्र । वद । ज्योतिःऽअग्राः । याः । एतत् । दुह्रे । मधुऽदोघम् । ऊधः । सः । वत्सम् । कृण्वन् । गर्भम् । ओषधीनाम् । सद्यः । जातः । वृषभः । रोरवीति ॥ ७.१०१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( वृषभ: ) बरसता मेघ (रोरवीति ) गर्जता है ( ज्योतिरग्राः वाचः वदति ) प्रथम विद्युत् ज्योति को चमका कर बाद में गर्जना करता है और ( ऊधः मधुदोधम् दुह्रे ) अन्तरिक्ष से जल को दोहता है, और ( ओषधीनां गर्भं कृण्वन् ) ओषधियों को गर्भित करता है । उसी प्रकार हे विद्वन् ! तू ( ज्योतिरग्राः ) उत्तम ज्ञान ज्योतियों से युक्त वा अग्र भाग में प्राण व रूप ज्योति से युक्त ( तिस्रः वाचः ) तीनों उन वेदवाणियों, गद्य, यजुष, छन्द, ऋग् और (गीति साम) को ( प्र वद ) अच्छी प्रकार उपदेश कर ( याः ) जिनसे ( वृषभः ) मनुष्यों में श्रेष्ठ, और मेघवत् गंभीर वाणी का उपदेष्टा जन (उतत् ऊधः) इस ऊर्ध्व स्थित ब्रह्म को ( मधु-दोघम् ) मधुर ऋङ्मय ज्ञान रस को ( दुह्रे ) दोहन करता है ( सः ) वह (ओषधीनां ) ओषधियों, अन्नादि के ग्रहण करने वाले ( वत्सं ) छोटे बच्छे के समान बालक को अपना ( वत्सं कुण्वन् ) समीपस्थ अन्ते वासी शिष्य बना कर ( सद्यः ) अति शीघ्र ही ( जातः ) स्वयं प्रकट होकर ( रोरवीति ) उपदेश करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेय ऋषिः॥ पर्जन्यो देवता॥ छन्दः—१, ६ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्॥

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