ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः
देवता - पर्जन्यः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्त॒रीरु॑ त्व॒द्भव॑ति॒ सूत॑ उ त्वद्यथाव॒शं त॒न्वं॑ चक्र ए॒षः । पि॒तुः पय॒: प्रति॑ गृभ्णाति मा॒ता तेन॑ पि॒ता व॑र्धते॒ तेन॑ पु॒त्रः ॥
स्वर सहित पद पाठस्त॒रीः । ऊँ॒ इति॑ । त्व॒त् । भव॑ति । सूतः॑ । ऊँ॒ इति॑ । त्व॒त् । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑म् । च॒क्रे॒ । ए॒षः । पि॒तुः । पयः॑ । प्रति॑ । गृ॒भ्णा॒ति॒ । मा॒ता । तेन॑ । पि॒ता । व॒र्ध॒ते॒ । तेन॑ । पु॒त्रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तरीरु त्वद्भवति सूत उ त्वद्यथावशं तन्वं चक्र एषः । पितुः पय: प्रति गृभ्णाति माता तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तरीः । ऊँ इति । त्वत् । भवति । सूतः । ऊँ इति । त्वत् । यथाऽवशम् । तन्वम् । चक्रे । एषः । पितुः । पयः । प्रति । गृभ्णाति । माता । तेन । पिता । वर्धते । तेन । पुत्रः ॥ ७.१०१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
विषय - मेघ के अप्रसूता और प्रसूता गौ के तुल्य रूप । उस के साथ सम्बद्ध भूमि सूर्यवत् प्रभु के दो रूप और प्रकृति पुरुष के विज्ञान का स्पष्टीकरण ।
भावार्थ -
( त्वत् ) मेघ का एकरूप ( स्तरीः ) न प्रसवने वाली गौ के समान होता है, (सूते त्वत्) और उसका एक रूप सूती गौ के समान जल धाराएं उत्पन्न करता है । ( एषः यथावशं तन्वं चक्रे ) वह सूर्य की कान्ति के अनुसार अपना व्यापक रूप बना लेता है । वह ( पितुः पयः प्रतिगृभ्णाति ) सूर्य रूप पिता से जल को ग्रहण करता और (तेन) उससे ( माता ) पृथिवी भी जल ग्रहण करती है। (तेन) उस जल से ( पिता वर्धते ) सूर्य महिमा से बढ़ता और ( तेन पुत्रः वर्धते ) उसी जल से पुत्रवत् ओषधि वनस्पति तथा जीवादि भी बढ़ते हैं। उसी प्रकार हे प्रभो ! ( त्वत् ) तेरा एक रूप ( स्तरीः भवति उ ) सर्वाच्छादक सर्वरक्षक होता है और ( त्वत् ) दूसरा रूप ( सूते उ ) समस्त जगत् को उत्पन्न करता है । ( यथावशं ) जितनी इच्छा होती है उतना ही ( एषः ) वह परमेश्वर ( तन्वं ) अपना विस्तृत संसार ( चक्रे ) बना ले सकता है । ( माता) जिस प्रकार माता ( पितुः ) पिता से ( पयः प्रतिगृभ्णाति ) वीर्य ग्रहण कर गर्भ धारण करती है और उससे ( पिता पुत्रः वर्धते ) पिता का वंश और प्रिय पुत्र भी बढ़ता है । उसी प्रकार ( पितुः ) सर्वपालक तुझ पिता से ही ( माता ) सर्वनिर्मात्री प्रकृति ( पयः ) वीर्य, बल, शक्ति को ( प्रति गृभ्णाति ) प्रति सर्ग ग्रहण करती है और ( तेन ) उससे ही ( पिता ) सर्वपालक प्रभु की महिमा ( वर्धते ) बढ़ती है या ( तेन ) उस शक्ति से ही ( पिता ) पालक प्रभु ( वर्धते ) जगत् को गढ़ता है और ( तेन पुत्रः ) उससे ही पुत्रवत् जीवजगत् भी ( वर्धते ) बढ़ता, वृद्धि को प्राप्त करता है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेय ऋषिः॥ पर्जन्यो देवता॥ छन्दः—१, ६ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्॥
इस भाष्य को एडिट करें