ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
अ॒ग्निं वो॑ दे॒वम॒ग्निभिः॑ स॒जोषा॒ यजि॑ष्ठं दू॒तम॑ध्व॒रे कृ॑णुध्वम्। यो मर्त्ये॑षु॒ निध्रु॑विर्ऋ॒तावा॒ तपु॑र्मूर्धा घृ॒तान्नः॑ पाव॒कः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । वः॒ । दे॒वम् । अ॒ग्निऽभिः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । यजि॑ष्ठम् । दू॒तम् । अ॒ध्व॒रे । कृ॒णु॒ध्व॒म् । यः । मर्त्ये॑षु । निऽध्रु॑विः । ऋ॒तऽवा॑ । तपुः॑ऽमूर्धा । घृ॒तऽअ॑न्नः । पा॒व॒कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं वो देवमग्निभिः सजोषा यजिष्ठं दूतमध्वरे कृणुध्वम्। यो मर्त्येषु निध्रुविर्ऋतावा तपुर्मूर्धा घृतान्नः पावकः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। वः। देवम्। अग्निऽभिः। सऽजोषाः। यजिष्ठम्। दूतम्। अध्वरे। कृणुध्वम्। यः। मर्त्येषु। निऽध्रुविः। ऋतऽवा। तपुःऽमूर्धा। घृतऽअन्नः। पावकः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य अग्नि विद्युत्वत् तेजस्वी दूतवत् प्रमुख पुरुष के कर्त्तव्य । (
भावार्थ -
( यः ) जो ( मर्येषु ) मरणधर्मा प्राणियों, मनुष्यों के बीच (निध्रुविः ) नित्य, ध्रुव, स्थायीरूप से वर्त्तमान (ऋतावा ) सत्य, न्याय प्रकाश और धनैश्वर्यादि का स्वयं भोक्ता, और अन्यों को उचित रूप में देने वाला, (तपुः-मूर्धा ) सूर्य अग्नि, वा विद्युत् के समान दुष्टों को सन्ताप देने के सामर्थ्य में सर्वोत्कृष्ट ( घृतान्नः ) अग्नि जिस प्रकार घृत को अन्नवत् ग्रहण करता, उसी प्रकार जो घृत से युक्त अन्न का भोजन करता है। और ( पावकः ) प्रजा के आचार व्यवहारों को पवित्र करता है एवं (स-जोषा:) समान भावसे सब के प्रति प्रीतियुक्त हो ( वः ) आप लोगों के बीच में उस ( देवम् ) तेजस्वी, व्यवहारज्ञ, दानशील, ज्ञानप्रकाशक ( यजिष्ठं ) अतिपूज्य, सत्संग योग्य, ( अग्निम् ) अग्रणी, तेजस्वी पुरुष को ( अध्वरे ) यज्ञ में अग्नि तुल्य ही हिंसारहित, प्रजापालना अध्ययनाध्यापन, विद्याग्रहण आदि कार्यो में ( दूतम् ) सेवा के योग्य, ( कृणुध्वम् ) बनाओ । ऐसे ही विद्वान् को राजा लोग भी दूतवत् प्रमुख वक्ता रूप से नियत करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषि: ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः ।। । दशर्चं सूक्तम् ॥
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