ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
प्रोथ॒दश्वो॒ न यव॑सेऽवि॒ष्यन्य॒दा म॒हः सं॒वर॑णा॒द्व्यस्था॑त्। आद॑स्य॒ वातो॒ अनु॑ वाति शो॒चिरध॑ स्म ते॒ व्रज॑नं कृ॒ष्णम॑स्ति ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्रोथ॑त् । अश्वः॑ । न । यव॑से । अ॒वि॒ष्यन् । य॒दा । म॒हः । स॒म्ऽवर॑णात् । वि । अस्था॑त् । आत् । अ॒स्य॒ । वातः॑ । अनु॑ । वा॒ति॒ । शो॒चिः । अध॑ । स्म॒ । ते॒ । व्रज॑नम् । कृ॒ष्णम् । अ॒स्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोथदश्वो न यवसेऽविष्यन्यदा महः संवरणाद्व्यस्थात्। आदस्य वातो अनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्रोथत्। अश्वः। न। यवसे। अविष्यन्। यदा। महः। सम्ऽवरणात्। वि। अस्थात्। आत्। अस्य। वातः। अनु। वाति। शोचिः। अध। स्म। ते। व्रजनम्। कृष्णम्। अस्ति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - प्रयाणशील राजा की अग्नि और सैन्य की प्रबल बात से तुलना। अश्व अग्नि राजा का समान वर्णन। अध्यात्म में - आत्मा अश्व ।
भावार्थ -
( अविष्यन् ) तृप्ति चाहता हुआ ( अश्वः ) अश्व ( यवसे) घास चारे के लिये ( न ) जिस प्रकार ( प्रोथत् ) हर्षध्वनि करता, हिनहिनाता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( अविष्यन् ) प्रजा की रक्षा करना चाहता हुआ ( यवसे ) शत्रु को छिन्न भिन्न करने के कार्य के लिए (प्रोथत् ) उत्तम गर्जना करता हुआ ( यदा ) जब (महः संवरणात्) बड़े भारी रक्षास्थान, प्रकोट से ( वि अस्थात् ) विशेष रूप से प्रस्थान करे ( आत् ) अनन्तर ( अस्य शोचिः अनु ) उसके तेज के साथ साथ अग्नि की ज्वाला के पीछे २ (वातः) वायुवत् प्रबल हे वृक्षों को उखाड़ देने वाले आंधी के समान प्रबल सैन्य समूह ( अनुवाति ) जाता है ( अध) तब हे राजन् ! सेनापते ! ( ते ब्रजनं ) तेरा गमन करना ( कृष्णम् अस्ति ) बड़ा चित्ताकर्षक एवं शत्रुओं के मूल काट देने वाला होता है । अध्यात्म में – व्यापक होने से परमेश्वर वा आत्मा, 'अश्व' है । दृश्य जगत् उसका हिरण्यमय संवरण है, वह जब उसके दूर होने पर प्रकट होता है, उसके तेज के साथ साथ यह वात, वायु, प्राण भी चलता है उसकी (व्रजनं) प्राप्ति ही ( कृष्णम् ) आकर्षक, अति आनन्दप्रद और सब दुःख बन्धनों को काटने में समर्थ है।
टिप्पणी -
अश्व, अग्नि और राजा इन तीनों पक्षों में श्लेषविवरण पूर्वक सरल व्याख्या देखो यजुर्वेद, आलोक भाष्य (अ० १६/६२) ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषि: ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः ।। । दशर्चं सूक्तम् ॥
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