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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
यच्छ॑ल्म॒लौ भव॑ति॒ यन्न॒दीषु॒ यदोष॑धीभ्यः॒ परि॒ जाय॑ते वि॒षम्। विश्वे॑ दे॒वा निरि॒तस्तत्सु॑वन्तु॒ मा मां पद्ये॑न॒ रप॑सा विद॒त्त्सरुः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठयत् । श॒ल्म॒लौ । भव॑ति । यत् । न॒दीषु॑ । यत् । ओष॑धीभ्यः । परि॑ । जाय॑ते । वि॒षम् । विश्वे॑ । दे॒वाः । निः । इ॒तः । तत् । सु॒व॒न्तु॒ । मा । माम् । पद्ये॑न । रप॑सा । वि॒द॒त् । त्सरुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्छल्मलौ भवति यन्नदीषु यदोषधीभ्यः परि जायते विषम्। विश्वे देवा निरितस्तत्सुवन्तु मा मां पद्येन रपसा विदत्त्सरुः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठयत्। शल्मलौ। भवति। यत्। नदीषु। यत्। ओषधीभ्यः। परि। जायते। विषम्। विश्वे। देवाः। निः। इतः। तत्। सुवन्तु। मा। माम्। पद्येन। रपसा। विदत्। त्सरुः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
विषय - नाना विषों को गुप्त प्रकृति और उनका प्रतिकार।
भावार्थ -
( यत् विषम् ) जो जल या रस ( शल्मलौ भवति ) शाल्मलि वर्ग के वृक्षों में होता है (यत् विषम् नदीषु ) जो जल, वा रस नदियों में होता है, ( यत् विषम् ) जो रस ( ओषधिभ्यः परि जायते ) ओषधियों से उत्पन्न होता है, ( विश्वे देवाः ) समस्त विद्वान् जन (तत्) उस नाना प्रकार के जलों या रसों को ( इतः ) इन २ स्थानों से ( निः सुवन्तु ) ले लिया करें और चिकित्सा का कार्य करें । जिससे ( त्सरुः ) छुपी चाल का रोग ( मां ) मुझे (पद्येन रपसा ) आने वाले पापाचरण से वा चरणादि के अपराध से ( मा विदत् ) न प्राप्त हो । बढ़, पीपल, गूलर आदि का दुग्ध रस आदि भी वातनाशक, सूजाक, सिफ़लिसादि रोगों के भयंकर विषों का नाश करते हैं इसी प्रकार नाना नदियों और ओषधियों के रसों से आने वाले सब प्रकार के कष्ट, ज्वर, कुष्ठ, पामा आदि रोग नष्ट होते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ १ मित्रावरुणौ। २ अग्निः। ३ विश्वेदेवाः॥ ४ नद्यो देवताः॥ छन्दः–१,३ स्वराट् त्रिष्टुप्। २ निचृज्जगती। ४ भुरिग्जगती॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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