ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
यद॑र्जुन सारमेय द॒तः पि॑शङ्ग॒ यच्छ॑से। वी॑व भ्राजन्त ऋ॒ष्टय॒ उप॒ स्रक्वे॑षु॒ बप्स॑तो॒ नि षु स्व॑प ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒र्जु॒न॒ । सा॒र॒मे॒य॒ । द॒तः । पि॒श॒ङ्ग॒ । यच्छ॑से । विऽइ॑व । भ्रा॒ज॒न्ते॒ । ऋ॒ष्टयः॑ । उप॑ । स्रक्वे॑षु । नि । सु । स्व॒प॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदर्जुन सारमेय दतः पिशङ्ग यच्छसे। वीव भ्राजन्त ऋष्टय उप स्रक्वेषु बप्सतो नि षु स्वप ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अर्जुन। सारमेय। दतः। पिशङ्ग। यच्छसे। विऽइव। भ्राजन्ते। ऋष्टयः। उप। स्रक्वेषु। बप्सतः। नि। सु। स्वप ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
विषय - सारमेय विद्वान् पहरेदार का वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( अर्जुन ) धनादि के उत्तम रीति से उपार्जन करने वाले ! हे प्रतियत्नशील ! हे शुभ्र ! विद्वन् ! हे ( सारमेय ) सारवान्, बलवान् बलयुक्त एवं बहुमूल्य पदार्थों का मान-प्रतिमान करने और उनसे जाने जाने योग्य ! हे ( पिशङ्ग ) तेजस्विन् ! तू ( दतः ) अपने दांतों और अन्यों को खण्डित करने वाले शस्त्रों को ( यच्छसे ) नियम में रख । (बप्सतः) खाते हुए मनुष्यों के दांत जिस प्रकार ( स्रक्वेषु उप ) ओंठों के पास चमकते हैं उसी प्रकार ( स्रक्वेषु ) बने नगरों के पास ( बप्सतः ) राष्ट्र का भोग करते हुए तेरे (ऋष्टयः) शस्त्र अस्त्रादि, ( वि इव भ्राजन्त ) विशेष रूप से चमकते हैं । ( नि सु स्वप ) हे बलवान् राजा के प्रजाजन ! तू अच्छी प्रकार सुख की निद्रा ले ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ वास्तोष्पतिः । २—८ इन्द्रो देवता॥ छन्दः —१ निचृद्गायत्री। २,३,४ बृहती। ५, ७ अनुष्टुप्। ६, ८ निचृदनुष्टुप् । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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