ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
दि॒वि क्षय॑न्ता॒ रज॑सः पृथि॒व्यां प्र वां॑ घृ॒तस्य॑ नि॒र्णिजो॑ ददीरन् । ह॒व्यं नो॑ मि॒त्रो अ॑र्य॒मा सुजा॑तो॒ राजा॑ सुक्ष॒त्रो वरु॑णो जुषन्त ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि । क्षय॑न्ता । रज॑सः । पृ॒थि॒व्याम् । प्र । वा॒म् । घृ॒तस्य॑ । निः॒ऽनिजः॑ । द॒दी॒र॒न् । ह॒व्यम् । नः॒ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । सुऽजा॑तः । राजा॑ । सु॒ऽक्ष॒त्रः । वरु॑णः । जु॒ष॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि क्षयन्ता रजसः पृथिव्यां प्र वां घृतस्य निर्णिजो ददीरन् । हव्यं नो मित्रो अर्यमा सुजातो राजा सुक्षत्रो वरुणो जुषन्त ॥
स्वर रहित पद पाठदिवि । क्षयन्ता । रजसः । पृथिव्याम् । प्र । वाम् । घृतस्य । निःऽनिजः । ददीरन् । हव्यम् । नः । मित्रः । अर्यमा । सुऽजातः । राजा । सुऽक्षत्रः । वरुणः । जुषन्त ॥ ७.६४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( अर्यमा ) अर्यमा सूर्य जिस प्रकार ( दिवि रजसः पृथिव्यां क्षयन्ता ) आकाश, अन्तरिक्ष और पृथिवी में रहते हुए और मेघों को और सूर्य की किरण (घृतस्य निर्णिजः) जल और तेज के नाना शुद्ध रूपों को ( प्र ददीरन् ) अच्छी प्रकार से देते, प्रकट करते हैं । उसी प्रकार (दिवि) ज्ञान, व्यवहार और विजिगीषा में विद्यमान ( रजसः ) प्रजाजनों और (पृथिव्यां क्षयन्ता ) पृथिवी में ऐश्वर्यवान् होकर रहने वाले ( मित्रावरुणा ) स्नेही एवं श्रेष्ठ जनो ! ( वां ) आप लोगों को ( निः-निजः रजसः ) शुद्ध पवित्र आत्मा वाले उत्तम जन ( घृतस्य प्र ददीरन् ) तेजोयुक्त ज्ञानप्रकाश का प्रदान करें । ( मित्रः ) स्नेहवान् ( अर्यमा ) दुष्ट शत्रुओं का नियन्ता, ( सु-जातः ) उत्तम पूज्य पद पर प्रसिद्ध, ( राजा ) देदीप्यमान, तेजस्वी ( सु-क्षत्रः वरुणः ) उत्तम बल, धन का स्वामी, स्वयं वरणीय श्रेष्ठ राजा ये सब ( नः हव्यं ) हमारा दिया पदार्थ ( जुषन्त ) सेवन करें । अर्थात् ये सब लोग प्रजा को मनमाना न लूटें खसोंटे प्रत्युत सर्वसाधारण प्रजाजन जितना प्रेमपूर्वक दें उसका ही उपभोग करें ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें