ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
आ रा॑जाना मह ऋतस्य गोपा॒ सिन्धु॑पती क्षत्रिया यातम॒र्वाक् । इळां॑ नो मित्रावरुणो॒त वृ॒ष्टिमव॑ दि॒व इ॑न्वतं जीरदानू ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रा॒जा॒ना॒ । म॒हः॒ । ऋ॒त॒स्य॒ । गो॒पा॒ । सिन्धु॑पती॒ इति॒ सिन्धु॑ऽपती । क्ष॒त्रि॒या॒ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । इळा॑म् । नः॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । उ॒त । वृ॒ष्टिम् । अव॑ । दि॒वः । इ॒न्व॒त॒म् । जी॒रद॒ा॒नू॒ इति॑ जीरऽदानू ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ राजाना मह ऋतस्य गोपा सिन्धुपती क्षत्रिया यातमर्वाक् । इळां नो मित्रावरुणोत वृष्टिमव दिव इन्वतं जीरदानू ॥
स्वर रहित पद पाठआ । राजाना । महः । ऋतस्य । गोपा । सिन्धुपती इति सिन्धुऽपती । क्षत्रिया । यातम् । अर्वाक् । इळाम् । नः । मित्रावरुणा । उत । वृष्टिम् । अव । दिवः । इन्वतम् । जीरऽदानू इति जीरऽदानू ॥ ७.६४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
विषय - राजा रानी, राजा सेनापति के कर्त्तव्य
भावार्थ -
हे ( राजाना ) राजा रानी वा राजा सेनापति के समान प्रजाओं के बीच चमकने वाले, ( महः ऋतस्य गोपा ) बड़े भारी धनैश्वर्य और ज्ञान के रक्षक, ( सिन्धु-पती ) वेग से जाने वाले अश्वों, समुद्रवत् विशाल प्रजाजनों और सैन्यों तथा प्राणों के पालक, ( क्षत्रिया ) वीर, बलशाली होकर तुम दोनों (अर्वाक् यातम् ) आगे बढ़ो । हे (जीर-दानू ) जलप्रद मेघ और वायु के समान संसार को वेग, जीवन, और प्राण के देने वाले ! ( मित्रावरुणा ) स्नेहयुक्त और वरण करने योग्य श्रेष्ठ जनो ! जिस प्रकार वायु और मेघ वा विद्युत् और सूर्य दोनों ही ( दिवः वृष्टिम् इन्वतः ) आकाश से वृष्टि को लाते हैं, और ( दिवः इडाम् इन्वतम् ) भूमि से अन्न को उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार आप उक्त दोनों भी ( दिवः ) व्यापार आदि से ( वृष्टिम् अव इन्वतम् ) धन समृद्धि की वृद्धि प्राप्त कराओ ( उत ) और ( नः ) हमें ( इडां अप इन्वतम् ) उत्तम वाणी और अन्न सम्पदा प्राप्त कराओ ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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