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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र वां॒ रथो॒ मनो॑जवा इयर्ति ति॒रो रजां॑स्यश्विना श॒तोति॑: । अ॒स्मभ्यं॑ सूर्यावसू इया॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वा॒म् । रथः॑ । मनः॑ऽजवा । इ॒य॒र्ति॒ । ति॒रः । रजां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । श॒तऽऊ॑तिः । अ॒स्मभ्य॑म् । सू॒र्या॒व॒सू॒ इति॑ । इ॒या॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वां रथो मनोजवा इयर्ति तिरो रजांस्यश्विना शतोति: । अस्मभ्यं सूर्यावसू इयानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वाम् । रथः । मनःऽजवा । इयर्ति । तिरः । रजांसि । अश्विना । शतऽऊतिः । अस्मभ्यम् । सूर्यावसू इति । इयानः ॥ ७.६८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे ( अश्विना ) विद्वान्, जितेन्द्रिय पुरुषो ! ( रथः ) उपदेश ( मनोजवाः ) मन को प्रेरणा करने वाला (शत-ऊतिः) सैकड़ों ज्ञानों से युक्त और सैकड़ों संकटों से बचाने वाला होकर ( वां ) आप दोनों के ( रजांसि ) तेजों को सूर्य के समान, राजस आवरणों को ( तिरः इयर्त्ति) दूर करता है । हे (सूर्यावसू) सूर्य के समान तेजस्वी गुरु जनो, विद्याओं के प्रकाशक गुरु जनों के अधीन ब्रह्मचर्य पूर्वक वास करने वाले ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी जनो ! वह सदा ( अस्मभ्यं इयानः ) हमारे हितार्थ आता हुआ भी हमारे राजस आवरणों को भी ( तिरः ) दूर करे । ( २ ) हे ( सूर्यावसू) सूर्य और सूर्यावत् पति पत्नी होकर गृहस्थ में बसने वाले वर वधू जनो ! ( अस्मभ्यं इयानः ) हमारे तक पहुंचने के लिये आता हुआ आप दोनों का रथ (शत-ऊतिः) सैकड़ों मील तक या प्रति घंटा १०० मील जाने वाला और ( मनोजवाः ) मन के संकल्पमात्र से वेग से जाने वाला वा मन के समान तीव्रगति से जाने वाला होकर ( रजांसि तिरः इयर्त्ति ) धूलि समूह को इधर उधर फेंकता है । ( ३ ) हे स्त्री पुरुषो ! (वां रथः) आप दोनों का रमण साधन 'देह', रमणकर्त्ता आत्मा, (शत-ऊतिः) शत वर्ष तक सुरक्षित रहकर अनेक ज्ञान प्राप्त करके (रजांसि तिरः इयत्ति) राजस आवरणों या पार्थिव भौतिक अंशों को दूर करता है, हे सूर्यवत् तपस्या का अभ्यास करने वाले जनो, ऐसा देह और रथ (अस्मभ्यं इयानः) हमें भी प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ६, ८ साम्नी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ साम्नी निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७ साम्नी भुरिगासुरी विराट् त्रिष्टुप् । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूकम्॥

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