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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - आर्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं ह॒ यद्वां॑ देव॒या उ॒ अद्रि॑रू॒र्ध्वो विव॑क्ति सोम॒सुद्यु॒वभ्या॑म् । आ व॒ल्गू विप्रो॑ ववृतीत ह॒व्यैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ह॒ । यत् । वा॒म् । दे॒व॒ऽयाः । ऊँ॒ इति॑ । अद्रिः॑ । ऊ॒र्ध्वः । विव॑क्ति । सो॒म॒ऽसुत् । यु॒वभ्या॑म् । आ । व॒ल्गू इति॑ । विप्रः॑ । व॒वृ॒ती॒त॒ । ह॒व्यैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ह यद्वां देवया उ अद्रिरूर्ध्वो विवक्ति सोमसुद्युवभ्याम् । आ वल्गू विप्रो ववृतीत हव्यैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ह । यत् । वाम् । देवऽयाः । ऊँ इति । अद्रिः । ऊर्ध्वः । विवक्ति । सोमऽसुत् । युवभ्याम् । आ । वल्गू इति । विप्रः । ववृतीत । हव्यैः ॥ ७.६८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    ( देवयाः ) विद्वानों और विद्याभिलाषी जनों को अन्नों और ज्ञानों का दान करने वाला, उनका पूजा सत्कार करने वाला पुरुष (अयं ह) वह है ( यत् ) जो ( अद्रि: ) मेघ के समान उदार होकर ( सोम-सुत् ) उत्तम अन्न ओषधियों के रसवत् ज्ञान को देने वाला होकर के ( ऊर्ध्वः ) उत्तम पद पर स्थित होकर ( युवभ्याम् ) तुम दोनों के लाभ के लिये ( विवक्ति ) विविध प्रकार से स्तुति वचन और उपदेश कहे । ( विप्रः ) विद्वान् पुरुष ( वल्गू ) उत्तम वाणियें बोलने वाले आप दोनों को ( हव्यैः ) दान योग्य उत्तम ज्ञानों और अन्नादि पदार्थों से ( ववृतीत ) उनका आदर सत्कार व्यवहार करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ६, ८ साम्नी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ साम्नी निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७ साम्नी भुरिगासुरी विराट् त्रिष्टुप् । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूकम्॥

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