ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
यो वां॒ रथो॑ नृपती॒ अस्ति॑ वो॒ळ्हा त्रि॑वन्धु॒रो वसु॑माँ उ॒स्रया॑मा । आ न॑ ए॒ना ना॑स॒त्योप॑ यातम॒भि यद्वां॑ वि॒श्वप्स्न्यो॒ जिगा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । रथः॑ । नृ॒प॒ती॒ इति॑ नृऽपती । अस्ति॑ । वो॒ळ्हा । त्रि॒ऽव॒न्धु॒रः । वसु॑ऽमान् । उ॒स्रऽया॑मा । आ । नः॒ । ए॒ना । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । या॒त॒म् । अ॒भि । यत् । वा॒म् । वि॒श्वऽप्स्न्यः॑ । जिगा॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वां रथो नृपती अस्ति वोळ्हा त्रिवन्धुरो वसुमाँ उस्रयामा । आ न एना नासत्योप यातमभि यद्वां विश्वप्स्न्यो जिगाति ॥
स्वर रहित पद पाठयः । वाम् । रथः । नृपती इति नृऽपती । अस्ति । वोळ्हा । त्रिऽवन्धुरः । वसुऽमान् । उस्रऽयामा । आ । नः । एना । नासत्या । उप । यातम् । अभि । यत् । वाम् । विश्वऽप्स्न्यः । जिगाति ॥ ७.७१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
विषय - रथ की पुरुष से तुलना।
भावार्थ -
हे (नृपती ) मनुष्य पति पत्नी ! विवाहित स्त्री पुरुषो ! जिस प्रकार ( रथः वोढा, त्रि-वन्धुरः) रथ अपने में मनुष्यों को उठाकर लेजाने से 'वोढा' और तीन दण्डों से बने पीढ़े से युक्त होता है, उसी प्रकार ( यः ) जो पुरुष ( वां ) आप दोनों में से ( रथः ) रम्य स्वभाव का वा स्थिर होकर ( वोढा ) गृहस्थ के भार सहन करने वाला, विवाह करने हारा ( त्रि-वन्धुरः ) तीन ऋणों से बद्ध, (वसु-मान्) ऐश्वर्यवान्, (उस्त्रयामा ) सूर्यवत् तेजस्वी होकर जाने हारा है और ( यत् वां ) जो तुम दोनों में से ( विश्व-प्स्न्यः ) विशेष उत्तम रूपवान् होकर (अधि जिगाति) प्राप्त होता है हे ( नासत्या) कभी असत्य धारण न करने हारे स्त्री पुरुषो ! ( एना ) उस व्यक्ति के बल से ही (नः आ उपयातम् ) हमें प्राप्त होओ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते । छन्दः – १, ५ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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