ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
विश्वं॑ प्रती॒ची स॒प्रथा॒ उद॑स्था॒द्रुश॒द्वासो॒ बिभ्र॑ती शु॒क्रम॑श्वैत् । हिर॑ण्यवर्णा सु॒दृशी॑कसंदृ॒ग्गवां॑ मा॒ता ने॒त्र्यह्ना॑मरोचि ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑म् । प्र॒ती॒ची । स॒ऽप्रथाः॑ । उत् । अ॒स्था॒त् । रुश॑त् । वासः॑ । बिभ्र॑ती । शु॒क्रम् । अ॒श्वै॒त् । हिर॑ण्यऽवर्णा । सु॒दृशी॑कऽसन्दृक् । गवा॑म् । मा॒ता । ने॒त्री । अह्ना॑म् । अ॒रो॒चि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वं प्रतीची सप्रथा उदस्थाद्रुशद्वासो बिभ्रती शुक्रमश्वैत् । हिरण्यवर्णा सुदृशीकसंदृग्गवां माता नेत्र्यह्नामरोचि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम् । प्रतीची । सऽप्रथाः । उत् । अस्थात् । रुशत् । वासः । बिभ्रती । शुक्रम् । अश्वैत् । हिरण्यऽवर्णा । सुदृशीकऽसन्दृक् । गवाम् । माता । नेत्री । अह्नाम् । अरोचि ॥ ७.७७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - दिनों की नायिका उषावत् परमेश्वरी शक्ति और उत्तम युवति, नायिका के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ -
(अह्नां नेत्री) उषा, प्रभात वेला जिस प्रकार दिनों की प्रारम्भक नायिका, ( गवां माता ) सूर्य की किरणों को अपने में से माता के समान पैदा करती है, वह ( हिरण्य-वर्णा ) सुवर्ण के समान चमकती हुई ( सुदृशीक-सन्दृग् ) आंखों को सब पदार्थ अच्छी प्रकार दिखला देती है, वह ( प्रतीची ) प्रत्यक्ष होती हुई, ( स-प्रथा ) विस्तृत होकर ( रुशद् वासः बिभ्रती ) मानो चमकीला वस्त्र पहने ( विश्वं शुक्रम् अश्वेत् ) समस्त संसार को दीप्तियुक्त कर चमका देती और बढ़ती है उसी प्रकार परमेश्वरी शक्ति और नव वधू माता भी ( अह्नां ) न नाश होने वाले, नित्य, जीवों, न मरने योग्य बालक जीवों की ( नेत्री ) नायिका, प्राप्त कराने वाली, ( गवां ) लोकों, वाणियों और गौ आदि पशुओं की भी ( माता ) माता के समान पालन करने वाली । ( सुदृशीक-संदृग् ) दर्शनीय सम्यक् दृष्टि से युक्त, निष्पक्षपात, सौम्यनयनी, (हिरण्य-वर्णा) उज्ज्वल, हित रमणीव वर्ण वाली हो । वह ( प्रतीची ) प्रत्येक की दृष्टि में पूजनीय, ( रुशद्-वासः ) उज्ज्वल वस्त्रादि को ( बिभ्रती ) धारण करती हुई, ( सप्रथा ) समान रूप से विख्यात होकर ( उत्-अस्थात् ) उत्तम स्थिति प्राप्त करे और ( शुक्रम् अश्वैत्) शुद्धरूप, शुद्ध आचरण और वीर्योत्पन्न सन्तति की वृद्धि करे ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्: त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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