ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
प्र दैवो॑दासो अ॒ग्निर्दे॒वाँ अच्छा॒ न म॒ज्मना॑ । अनु॑ मा॒तरं॑ पृथि॒वीं वि वा॑वृते त॒स्थौ नाक॑स्य॒ सान॑वि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । दैवः॑ऽदासः । अ॒ग्निः । दे॒वान् । अच्छ॑ । न । म॒ज्मना॑ । अनु॑ । मा॒तर॑म् । पृ॒थि॒वीम् । वि । व॒वृ॒ते । त॒स्थौ । नाक॑स्य । सान॑वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र दैवोदासो अग्निर्देवाँ अच्छा न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य सानवि ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । दैवःऽदासः । अग्निः । देवान् । अच्छ । न । मज्मना । अनु । मातरम् । पृथिवीम् । वि । ववृते । तस्थौ । नाकस्य । सानवि ॥ ८.१०३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
विषय - परम गुरु की उपासना सूर्य, पृथ्वी और परमेश्वर प्रकृति के कार्यों का वर्णन।
भावार्थ -
( दैवः दासः = दिवः-दासः ) तेज वा प्रकाश देने वाले सूर्य की (अग्निः ) अग्नि ( देवान् ) अपने किरणों वा प्रकाशों को ( मातरं पृथिवीं अनु ) सब जननी माता पृथिवी की ( अच्छ ) और (मज्मना न प्र वावृते) मानो बड़े बल से भेजता है, और ( पृथिवी मातरम् अनु ) उत्पादक माता भूमि के रचनादि के अनुसार (वि वावृते) उस में विविध कार्य करता है। वह पत्रों को हरा, पुष्पों का नाना रंगों का, जड़ों को स्थूल दृढ़ इत्यादि जंगम स्थावरादि संसार को अद्भुत प्रकार से परिणत करता, नाना ऋतु आदि को प्रवृत्त कराता है। वह स्वयं ( नाकस्य सानवि ) आकाश के उच्च भाग पर (तस्थौ) स्थिर रहता है। उसी प्रकार वह सर्वज्ञ प्रभु भी ( नाकस्य साझवि ) सुख आनन्दमय दशा में स्थिर है, तो भी मातृवत् जननी विस्तृत प्रकृति को बहुत भारी बल से नहीं चलाता प्रत्युत बड़े अनायास ही उस में ( प्र वावृते ) प्रथम स्पन्द उत्पन्न करता है और ( अनु वि वावृते ) अनन्तर उसी प्रकृति को विविध रूपों में बनाकर जगत् रूप से बदल देता है। यही वास्तविक ‘विवर्त्त’ है। ! न कि नवीन-वेदान्तसम्मत ब्रह्म का ही विकार। वह अग्नि परमेश्वर ‘दैवोदासः’ है ( दिवः सूर्यादयो दास इव यस्य ) समस्त सूर्य आदि लोक उस के दास के समान हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
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