ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑ । उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । हरी॒ इति॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । नः॒ । शृ॒णु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना । उप ब्रह्माणि नः शृणु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । ब्रह्मऽयुजा । हरी इति । वहताम् । इन्द्र । केशिना । उप । ब्रह्माणि । नः । शृणु ॥ ८.१७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
विषय - उसका हृदय में आह्वान और धारण ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( केशिना हरी ) केशों वाले दो अश्व स्वामी के रथ को लेजाते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ब्रह्म-युजा ) वेद ज्ञान के सहयोगी (केशिना हरी) केशोंवत्, रश्मियों तेजों को धारण करने वाले स्त्री पुरुष वा गुरु शिष्य, ( त्वा आ वहताम् ) तुझे अपने में धारण करें। तू (नः ब्रह्माणि ) हमारे वेद-मन्त्रों को ( उप शृणु ) श्रवण कर। हे विद्वन् ! गुरो ! तू हमें नाना वेदज्ञान समीप विराज कर ( उपशृणु ) श्रवण करा ॥
टिप्पणी -
अन्तर्भावितो णिः
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ७, ८ गायत्री। ४—६, ९—१२ निचृद् गायत्री। १३ विराड् गायत्री। १४ आसुरी बृहती। १५ आर्षी भुरिग् बृहती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
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