ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 24
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - वायु:
छन्दः - पादनिचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
त्वां हि सु॒प्सर॑स्तमं नृ॒षद॑नेषु हू॒महे॑ । ग्रावा॑णं॒ नाश्व॑पृष्ठं मं॒हना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । हि । सु॒प्सरः॑ऽतमम् । नृ॒ऽसद॑नेषु । हू॒महे॑ । ग्रावा॑णम् । न । अश्व॑ऽपृष्ठम् । मं॒हना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां हि सुप्सरस्तमं नृषदनेषु हूमहे । ग्रावाणं नाश्वपृष्ठं मंहना ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । हि । सुप्सरःऽतमम् । नृऽसदनेषु । हूमहे । ग्रावाणम् । न । अश्वऽपृष्ठम् । मंहना ॥ ८.२६.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु से ऐश्वर्य की याचना ।
भावार्थ -
हे प्रभो ! हम लोग ( सुप्सरस्तमं ) उत्तम, पूज्य रूप कान्ति चाले ! वा कान्तियुक्त तेजस्वियों में सर्वश्रेष्ठ ( त्वा हि ) तुझ को ही ( नृ-सदनेषु ) सब मनुष्यों के सञ्चालन कार्यों में या मनुष्यों के गृहों में ( हूमहे ) तेरी ही स्तुति करते, तुझे ही पुकारते हैं। और तुझ को ( अश्व-पृष्ठं ) सूर्य के द्वारा सेचन समर्थ ( मंहना ) महान् सामर्थ्य से युक्त मेघ के सदृश, ( अश्व-पृष्ठ ) बड़े २ विद्वानों के ऊपर विद्यमान ( ग्रावाणं न ) सर्वोपदेष्टा गुरुवत् ( हूमहे ) स्वीकार करते हैं। (२) इसी प्रकार अश्वों के बल पर पुष्ट 'ग्राव' अर्थात् शस्त्रबलयुक्त राजा को हम मनुष्यों में से बसे राष्ट्रों में राजा रूप से स्वीकार करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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