ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 21
यद॒द्य सूर॒ उदि॑ते॒ यन्म॒ध्यंदि॑न आ॒तुचि॑ । वा॒मं ध॒त्थ मन॑वे विश्ववेदसो॒ जुह्वा॑नाय॒ प्रचे॑तसे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒द्य । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । यत् । म॒ध्यन्दि॑ने । आ॒ऽतुचि॑ । वा॒मम् । ध॒त्थ । मन॑वे । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सः॒ । जुह्वा॑नाय । प्रऽचे॑तसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य सूर उदिते यन्मध्यंदिन आतुचि । वामं धत्थ मनवे विश्ववेदसो जुह्वानाय प्रचेतसे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अद्य । सूरे । उत्ऽइते । यत् । मध्यन्दिने । आऽतुचि । वामम् । धत्थ । मनवे । विश्वऽवेदसः । जुह्वानाय । प्रऽचेतसे ॥ ८.२७.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
विषय - राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( यत् ) जिस प्रकार ( उद् इते ) उदय, को प्राप्त करते हुए और ( मध्यन्दिने ) मध्य दिन में (आ-तुचि ) सब ओर संतापित करने वाले ( सूरे) सूर्य के किरणोंवत् उसके समान तेजस्वी पुरुष के अधीन ( यत् यत् वामं धत्थ) जिस २ उत्तम ज्ञान और धन को धारण करो उसको आप लोग (विश्व-वेदसः) समस्त धनों और ज्ञानों के स्वामी होकर, (जुह्वानाय ) दान देने वाले और ( प्र-चेतसे ) उत्तम चित्त और उत्तम ज्ञानी पुरुष के लिये ( धत्थ ) दे दिया करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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