ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
यदि॑ मे रा॒रण॑: सु॒त उ॒क्थे वा॒ दध॑से॒ चन॑: । आ॒रादुप॑ स्व॒धा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । मे॒ । र॒रणः॑ । सु॒ते । उ॒क्थे । वा॒ । दध॑से । चनः॑ । आ॒रात् । उप॑ । स्व॒धा । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि मे रारण: सुत उक्थे वा दधसे चन: । आरादुप स्वधा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । मे । ररणः । सुते । उक्थे । वा । दधसे । चनः । आरात् । उप । स्वधा । आ । गहि ॥ ८.३२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - व्यापार का उपदेश।
भावार्थ -
हे ऐश्वर्यवन् ! ( यदि ) यदि तू ( मे सुते ) मेरे उत्पन्न किये ऐश्वर्य में ( रारणः ) रमण करे, उसका उपभोग करे, और यदि ( मे उक्थे ) मेरे उत्तम वचन में ही ( रारणः ) प्रसन्न तो और ( चनः दुधसे ) बहुत अन्न को धारण करे, तो तू ( आरात् ) दूर या समीप से भी ( स्वधा ) अपने धारण पोषण करने के नाना पदार्थों को ( उप गहि ) क्रय विक्रय या व्यापार द्वारा प्राप्त कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
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