ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
यदि॑ मे रा॒रण॑: सु॒त उ॒क्थे वा॒ दध॑से॒ चन॑: । आ॒रादुप॑ स्व॒धा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । मे॒ । र॒रणः॑ । सु॒ते । उ॒क्थे । वा॒ । दध॑से । चनः॑ । आ॒रात् । उप॑ । स्व॒धा । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि मे रारण: सुत उक्थे वा दधसे चन: । आरादुप स्वधा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । मे । ररणः । सुते । उक्थे । वा । दधसे । चनः । आरात् । उप । स्वधा । आ । गहि ॥ ८.३२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
If you take delight in the soma distilled by me and feel the ecstasy of my song of homage, then come from far and come from near and, by your own divine nature, take me on for the food of life you hold for me.
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस परमेश्वराने उत्पन्न केलेल्या सांसारिक पदार्थांचा सदुपयोग करतो व त्यात मग्न राहतो व त्याबरोबरच त्याच्या गुणांचा पाठ करत त्यांना जीवनात धारण करण्याचा प्रयत्न करतो, त्याला सहजच परमेश्वराचे सान्निध्य प्राप्त होते. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यदि) यदि (मे) मेरे (सुते) निष्पादित सुखदायक ऐश्वर्य में (रारणः) तूने रमण किया हो (वा) और (उक्थे) मेरी स्तुति में (चनः) तुझे आनन्द (दधसे) अनुभव हो तो (आरात्) दूर से व (उप) समीप से कहीं से भी (स्वधा) अपने स्वभाव से ही मुझे (गहि) पा ले ॥६॥
भावार्थ
जो व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा उत्पन्न सांसारिक पदार्थों का सदुपयोग करता तथा मग्न रहता है और साथ ही उसके गुणों का गान कर उन्हें जीवन में धारण करने का प्रयत्न करता रहता है, उसे स्वभाव से ही परमेश्वर का सान्निध्य मिलता है ॥६॥
विषय
व्यापार का उपदेश।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् ! ( यदि ) यदि तू ( मे सुते ) मेरे उत्पन्न किये ऐश्वर्य में ( रारणः ) रमण करे, उसका उपभोग करे, और यदि ( मे उक्थे ) मेरे उत्तम वचन में ही ( रारणः ) प्रसन्न तो और ( चनः दुधसे ) बहुत अन्न को धारण करे, तो तू ( आरात् ) दूर या समीप से भी ( स्वधा ) अपने धारण पोषण करने के नाना पदार्थों को ( उप गहि ) क्रय विक्रय या व्यापार द्वारा प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
सोमरक्षण- प्रभु-स्तवन- सात्विक अन्न सेवन
पदार्थ
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (यदि) = यदि (मे) = मेरे (सुते) = उत्पन्न किये हुए इस सोम में (रारण:) = तू रमण करता है, (वा) = और यदि (उक्थे) = स्तोत्र में, स्तुति में रमण करता है तथा (चनः दधसे) = सात्त्विक अन्न का सेवन करता है। तो (स्वधा) = आत्मधारण शक्ति के हेतु से (आरात् उपगाहि) = हमारे अत्यन्त समीप प्राप्त होनेवाला हो [आरात् समीप] । [२] आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करने के लिये प्रभु का सान्निध्य आवश्यक है। प्रभु के सान्निध्य के लिये तीन बातें सहायक होती हैं- [क] सोम का रक्षण, [ख] प्रभु का स्तवन [ग] सात्त्विक अन्न का सेवन।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'सोमरक्षण, प्रभु-स्तवन व सात्त्विक अन्न के सेवन' को अपनाकर प्रभु के उपासक बनें। यही आत्मधारणशक्ति की प्राप्ति का उपाय है।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal