ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 11
यः सं॒स्थे चि॑च्छ॒तक्र॑तु॒रादीं॑ कृ॒णोति॑ वृत्र॒हा । ज॒रि॒तृभ्य॑: पुरू॒वसु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयः । स॒म्ऽस्थे । चि॒त् । श॒तऽक्र॑तुः । आत् । ई॒म् । कृ॒णोति॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । पु॒रु॒ऽवसुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः संस्थे चिच्छतक्रतुरादीं कृणोति वृत्रहा । जरितृभ्य: पुरूवसु: ॥
स्वर रहित पद पाठयः । सम्ऽस्थे । चित् । शतऽक्रतुः । आत् । ईम् । कृणोति । वृत्रऽहा । जरितृऽभ्यः । पुरुऽवसुः ॥ ८.३२.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We invoke the lord adorable who does a hundred great favours to the man at peace and, dispelling the darkness in the mind and heart, sublimates the soul too with the spirit of a hundred good works of piety. Indeed, the lord is of infinite wealth, honour and bliss for all his devotees and destroys their evil and ignorance.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या स्तुतीने जीव त्याच्या गुणांना धारण करून विविध ऐश्वर्य प्राप्त करतो व स्थिर चित्त झाल्यावर त्याच्या जीवनमार्गात येणारी विघ्ने नष्ट होतात तेव्हा तोच ‘शतक्रतु’ विविध कर्म करू लागतो. ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (जरितृभ्यः) स्तुति करने वालों को (पुरूवसुः) भाँति-भाँति का ऐश्वर्य प्राप्त करा, उनको बसाता है और (संस्थे) स्थिर( चित्) चित्त में (शतक्रतुः) नाना प्रकार से सैकड़ों कर्म कराता है (आत्) अनन्तर (वृत्रहा) विघ्ननाशक बन (ईम्) जीवात्मा को भी शतक्रतु (कृणोति) कर देता है ॥११॥
भावार्थ
प्रभु स्तुति से जीव उसके गुणों को धार कर विविध ऐश्वर्य पाता है तथा स्थिर चित्त होने पर उसके जीवन के मार्ग में आने वाले विघ्न नष्ट होते हैं और तब वह भी विविध कर्म करता है ॥११॥
विषय
पक्षान्तर में आचार्य और आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (संस्थे चित्) संग्राम में भी (शतक्रतुः) नाना कर्म करने हारा, नाना प्रज्ञावान् (वृत्रहा) शत्रुहन्ता होकर (आत्) अनन्तर (ईं कृणोति) नाना शत्रुओं का नाश करता है। वह (जरितृभ्यः) विद्वानों के लिये ( पुरु-वसुः ) बहुत से ऐश्वर्यों का स्वामी हो। ( २ ) अध्यात्म में पुरः इन्द्रियों में बसने वाला आत्मा इन्द्र है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
'शतक्रतु-पुरुवसु' प्रभु
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (संस्थे) = संग्राम में (चित्) = निश्चय से (शतक्रतुः) = अनन्त कर्मों व शक्तियोंवाले होते हैं, वे (वृत्रहा) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभु ही (आत्) = अब हमारे से उपासना के किये जाने पर (ईं कृणोति) = खूब ही शत्रुवध आदि कर्मों को करते हैं। [२] ये प्रभु (जरितृभ्यः) = इन स्तोताओं के लिये (पुरुवसुः) = पालक व पूरक धनों को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक को शक्ति प्राप्त कराते हैं, जिससे वह संग्राम में काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश कर सके। ये प्रभु उपासक के लिये पालक व पूरक धनों को प्राप्त कराते हैं।
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