ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 27
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र व॑ उ॒ग्राय॑ नि॒ष्टुरेऽषा॑ळ्हाय प्रस॒क्षिणे॑ । दे॒वत्तं॒ ब्रह्म॑ गायत ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । उ॒ग्राय॑ । निः॒ऽतुरे॑ । अषा॑ळ्हाय । प्र॒ऽस॒क्षिणे॑ । दे॒वत्त॑म् । ब्रह्म॑ । गा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र व उग्राय निष्टुरेऽषाळ्हाय प्रसक्षिणे । देवत्तं ब्रह्म गायत ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । उग्राय । निःऽतुरे । अषाळ्हाय । प्रऽसक्षिणे । देवत्तम् । ब्रह्म । गायत ॥ ८.३२.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 27
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O celebrants and yajakas, sing the most heavenly song of praise worthy of divinity in honour of refulgent, impetuous, invincible and ever enduring friend, Indra, leader and commander of the ruling and defensive forces of nature and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
काठक संहिता (३७-११) मध्ये म्हटलेले आहे - ‘ब्रह्म चैव क्षत्रं च सयुजौ करोति’ - ब्राह्मबल व क्षात्रबल यांच्यात मित्रत्व असले पाहिजे. राजा, सेनापती व स्वत: जीवात्म्यामध्ये जेथे दुष्टांच्या नाशासाठी आवश्यक क्षात्रबल असेल तेथे राष्ट्र व चरित्र निर्माणासाठी ब्राह्मबलही असले पाहिजे. ॥२७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे विद्वज्जनो! (उग्राय) तेजस्वी, (निस्तुरे) अजेय, (अषाळहाय) असह्य और (प्रसक्षिणे) प्रकृष्ट एवं सामर्थ्यवान् सेनाध्यक्ष को ( देवत्तम्) दिव्यभावना द्वारा प्रदत्त (ब्रह्म) ब्रह्मबल के (प्र गायत) गुणों का श्रवण कराओ॥२७॥
भावार्थ
ब्राह्म बल और क्षात्र बल साथ-साथ रहने चाहिए। हमारे सेनापति, राजा व स्वयं जीवात्मा में भी जहाँ दुष्ट-दलन के लिए अभीष्ट क्षात्रबल हो वहाँ राष्ट्र व चरित्रनिर्माण हेतु ब्राह्मबल भी जरूरी है ॥२७॥
विषय
विद्वानों को उपदेश।
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! हे विद्वानो ! आप लोग ( वः ) अपने में से ( उग्राय ) शत्रु के प्रति उग्रस्वभाव वाले, (निः-स्तुरे) शत्रु का सर्वथा नाश करने में समर्थ, ( अषाढाथ ) और स्वयं कभी पराजित न होने और ( प्र-सक्षिणे ) पर पक्ष को अच्छी प्रकार पराजित करने वाले पुरुष को और अधिक बलवान् करने के लिये ( देवत्तं ब्रह्म ) विद्वानों के द्वारा गुरुपरम्परा से प्रदत्त वा प्रभु से दिये वेद-ज्ञान का ( गायत ) उपदेश करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
'उग्र निष्टुर्' प्रभु का गुणगान
पदार्थ
[१] (उग्राय) = उस तेजस्वी, (निष्टुरे) = शत्रुओं को नष्ट करनेवाले, (अषाढाय) = शत्रुओं से अभिभूत न होनेवाले, (प्रसक्षिणे) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले प्रभु के लिये (वः) = तुम (देवत्तम्) = उस देव से ही दिये गये अथवा गुरु-शिष्य परम्परा के क्रम में ज्ञानियों से प्राप्त कराये गये (ब्रह्म) = स्तोत्र का (प्रगायत) = प्रकर्षेण गायन करो। [२] यह प्रभु के स्तोत्रों का गायन ही तुम्हें शत्रुओं से अभिभूत होने से बचायेगा। स्तोता के शत्रुओं को प्रभु ही पराजित करते हैं । प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होकर यह स्तोता आन्तर व बाह्य शत्रुओं का पराजय करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का गुणगान करें। यह गायन हमें उत्कृष्ट प्रेरणा प्राप्त करायेगा और काम आदि शत्रुओं के वशीभूत न होने देगा।
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