ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 24
अध्व॑र्य॒वा तु हि षि॒ञ्च सोमं॑ वी॒राय॑ शि॒प्रिणे॑ । भरा॑ सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यो॒ इति॑ । आ । तु । हि । सि॒ञ्च । सोम॑म् । वी॒राय॑ । शि॒प्रिणे॑ । भर॑ । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यवा तु हि षिञ्च सोमं वीराय शिप्रिणे । भरा सुतस्य पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यो इति । आ । तु । हि । सिञ्च । सोमम् । वीराय । शिप्रिणे । भर । सुतस्य । पीतये ॥ ८.३२.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O organiser and performer of yajna, offer the soma of devotion profusely to Indra, mighty lord of the helmet, and fill the vessel of your heart with divine love and pranic energy to enjoy life to the full.
मराठी (1)
भावार्थ
शतपथ (१/५/१/२१) मध्ये मनाला अध्वर्यू म्हटलेले आहे. जीवन यज्ञाचा ‘होता’ आत्म्याचा हा एक सहायक ऋत्विकच आहे. साधारण यज्ञात वेदीचे स्थान व वेदोरचना आणि इतर सामग्री जमविणे अध्वर्यूचे काम असते. या जीवन यज्ञाची साधक सामग्री प्राणशक्तीला जोडणे मनाचेच काम आहे. प्राणशक्तिसंपन्न सुदृढ मनच जीवात्म्याच्या शत्रुयुक्त दुर्भावनांना रडवून पळवून लावण्यास समर्थ बनू शकते. ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अध्वर्यो) मेरे मन! तू (वीराय) शौर्यवान् (शिप्रिणे) शत्रुओं तथा शत्रुभूत दुर्भावनाओं को रुलानेवाले इन्द्र या आत्मा के लिये (सोमम्) [अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त] प्राणशक्ति को (पीतये) अपने उपभोग हेतु (भरा) भर ले ॥२४॥
भावार्थ
शतपथ (१। ५। १। २१) में मन को अध्वर्यु कहा गया है। जीवन यज्ञ के 'होता' आत्मा का यह एक सहायक ऋत्विक् ही है। यज्ञ में वेदी के स्थान व वेदी रचना तथा अन्य सामग्री जुटाना अध्वर्यु का ही काम है। जीवनयज्ञ की साधक सामग्री, प्राणशक्ति जुटाना मन का ही काम है। प्राणशक्तियुक्त, सुदृढ़ मन ही जीवात्मा को शत्रुभूत दुर्भावनाओं को रुलाकर भगाने में समर्थ बना पाता है ॥२४॥
विषय
राजा को वा उत्साही को आदेश उपदेश।
भावार्थ
हे (अध्वर्यो) यज्ञ करने हारे, यज्ञ के स्वामिन् ! तू (शिप्रिणे) मुकुट धारण करने वाले ( वीराय ) वीर पुरुष के लिये (सोमं आ सिञ्च) ओषधि रसवत् ऐश्वर्यवान् राष्ट्र का आसेचन कर, उसके ऐश्वर्य के पद की वृद्धि कर। ( पीतये ) पालन करने के लिये ( सुतस्य ) उत्पन्न राष्ट्रजन को पुत्रवत् ( भर ) पुष्ट कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
प्रभु स्मरण से सोमरक्षण, सोमरक्षण से प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] हे (अध्वर्यो) = यज्ञशील पुरुष ! तू (वीराय) = [वि + ईर] शत्रुओं को कम्पित करनेवाले, (शिप्रिणे) = उत्तम हनु व नासिका को प्राप्त करानेवाले प्रभु की प्राप्ति के लिये (तु हि) = शीघ्र ही (सोमम्) = सोम को, वीर्यशक्ति को (आसिञ्च) = शरीर में समन्तात् सींचनेवाला बन। इस शक्ति के रक्षण से ही दीप्त ज्ञानार्यग्निवाला बनकर तू सूक्ष्म बुद्धि से प्रभु का दर्शन करेगा। [२] तू (सुतस्य) = इस उत्पन्न सोम के (पीतये) = शरीर में ही पीने के लिये भी (भरा) = उस प्रभु को हृदय में धारण कर। यह प्रभु-स्मरण (वासना) = विनाश के द्वारा तुझे सोमरक्षण के योग्य बनायेगा ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्मरण से हम सोम का रक्षण कर पायेंगे। सुरक्षित सोम बुद्धि को तीव्र बनाकर हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनायेगा ।
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