ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 26
अह॑न्वृ॒त्रमृची॑षम और्णवा॒भम॑ही॒शुव॑म् । हि॒मेना॑विध्य॒दर्बु॑दम् ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑न् । वृ॒त्रम् । ऋची॑षमः । औ॒र्ण॒ऽवा॒भम् । अ॒ही॒शुव॑म् । हि॒मेन॑ । अ॒वि॒ध्य॒त् । अर्बु॑दम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहन्वृत्रमृचीषम और्णवाभमहीशुवम् । हिमेनाविध्यदर्बुदम् ॥
स्वर रहित पद पाठअहन् । वृत्रम् । ऋचीषमः । और्णऽवाभम् । अहीशुवम् । हिमेन । अविध्यत् । अर्बुदम् ॥ ८.३२.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The refulgent sun breaks the heavy cloud of vapours moving around like a crooked snake, in the middle regions of space.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रकृतीमध्ये मेघरचना व तिच्या हालचाली आणि वृष्टी कशी होते याचे संशोधन केले पाहिजे. ॥२६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋचीषमः) दीप्ति के तुल्य स्वतः दीप्त सूर्य (और्णवाभम्) ऊन से भरे आच्छादक पदार्थ के जैसे जल को ढक कर रखने वाले (अहीशुवम्) द्युलोक तथा भूलोक के बीच अन्तरिक्ष में गतिमान् (वृत्रम्) मेघ पर (अहन्) आक्रमण करता है। वह (हिमेन) शीत से (अर्बुदम्) खूब फूले व कठोर बने बादल को (अविध्यत्) वेध कर तहस-नहस करता है ॥२६॥
भावार्थ
प्रकृति में मेघ की रचना और उसकी गतिविधियों का एवं वर्षा किस प्रकार होती है? इसका अनुसन्धान करना अपेक्षित है ॥२६॥
विषय
बलवान् इन्द्र के लक्षण।
भावार्थ
( ऋचीषमः ) तेज से सर्वत्र समान भाव से प्रदीप्त होने वाला सूर्य जिस प्रकार ( और्णवाभम् ) ऊन से बने कम्बल के समान आच्छादक, ( अहीशुवम् ) मेघ से बढ़ने वाले ( वृत्रम् ) मेधस्थ जल को ( अहन् ) आघात करता है और ( हिमेन ) शीत से ( अर्बुदम् ) जलप्रद मेघ को ( अविध्यत् ) वेध देता है, उसी प्रकार ( ऋचीषमः ) तेज और आदर, प्रतिष्ठा वा शासन वाणी से सर्वत्र समान निष्पक्षपात राजा ( और्णवाभम् ) ऊन देने वाले भेड़ के समान टक्कर लेने वाले, ( अहीशुवम् ) सूर्य के समान क्रोध से बढ़ने वाले ( वृत्रम् ) शत्रु को ( अहन ) नाश करता है, और वह ( अर्बुदम् ) शस्त्र बल से नाश करने वाले शत्रु को ( हिमेन ) अपने हनन साधन शस्त्र-बल से ( अविध्यत् ) वेधता, पीड़ित, ताड़ित करता है, वही बलवान् 'इन्द्र' है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
और्णवाभम
पदार्थ
[१] (ऋचीषमः) = स्तुति के समान वह प्रभु [प्रभु की जितनी भी स्तुति करें, प्रभु उतने ही महान् हैं। प्रभु की कभी अधिक स्तुति तो हो ही नहीं सकती। वे अनन्त हैं, स्तुति तो सान्त ही रहेगी] (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अहन्) = नष्ट करते हैं। [२] (और्णवाभम्) = मकड़ी के समान छल-छिद्र के जाल के तनने की वृत्ति को वे प्रभु नष्ट करते हैं। इसी प्रकार (अहीशुवम्) = [श्विगतौ] सर्प की तरह कुटिल गतिवाली आसुरी वृत्ति को प्रभु नष्ट करते हैं। [२] (अर्बुदम्) = साँप को हिमेन कपूर के द्वारा [campher] अथवा [fresh butter] मक्खन के द्वारा (अविध्यत्) = बींधते हैं। प्रभु का उपासक 'अर्बुद' का 'हिम' से ही वेधन करेगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें वासना, छलछिद्र के जालों, कपट से वृद्धि व सर्पवृत्ति से सदा दूर रखेगा।
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