ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 20
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पिब॒ स्वधै॑नवानामु॒त यस्तुग्र्ये॒ सचा॑ । उ॒तायमि॑न्द्र॒ यस्तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । स्वऽधै॑नवानाम् । उ॒त । यः । तुग्र्ये॑ । सचा॑ । उ॒त । अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । यः । तव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिब स्वधैनवानामुत यस्तुग्र्ये सचा । उतायमिन्द्र यस्तव ॥
स्वर रहित पद पाठपिब । स्वऽधैनवानाम् । उत । यः । तुग्र्ये । सचा । उत । अयम् । इन्द्र । यः । तव ॥ ८.३२.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Drink of the joy and exhilaration of your powers and perceptions which is all associated with your own performance, the super-power that’s you and yours. Indeed, it is all your own power and glory.
मराठी (1)
भावार्थ
आध्यात्मिक आनंदाच्या गुणांचे गान वेदात सर्वत्र सापडते. ‘सत्वं नो वीर वीर्याय चोदय’ (ऋ. १.११०.७) उतो न्वस्य पपिवाँसमिन्द्र न कश्चन सहत आहवेषु (ऋ. ६.४७.१) इत्यादी मंत्रात त्या आध्यात्मिक आनंदाचा निर्देश केलेला आहे. हा आध्यात्मिक आनंद जीवात्म्यात काही स्वाभाविक असतो व काही शुभकर्म करणाऱ्या इंद्रियांकडून मिळतो. ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) जीवात्मा! (यः) जो निष्पन्न आनन्द (स्वधैनवानाम्) तेरी अपनी आनन्द देने वाली इन्द्रियों का है उसका (उत) और (यः) जो (तुग्र्ये सचा) बलिष्ठ होने की क्रिया के साथ है (उत) और (यः) जो (अयम्) यह तेरा अपना ही स्वभावज है-- उसको उपभोग में ला ॥२०॥
भावार्थ
आध्यात्मिक आनन्द का गुणगान वेद में यत्र-तत्र किया गया है। अनेक मन्त्रों में उस आध्यात्मिक आनन्द की ओर निर्देश है। यह आध्यात्मिक आनन्द जीवात्मा में कुछ तो स्वभावजन्य होता है, कुछ शुभकर्मकर्त्री इन्द्रियों से मिलता है ॥२०॥
विषय
जीव को कर्मफल भोग का उपदेश।
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य ( स्व-धैनवानां पिबति ) अपनी गौवों का दूध पीता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! तू ( स्व घैनवानाम् ) अपनी वाणियों द्वारा प्राप्त सत्-असत् फलों का उपभोग कर और ( यः ) जो पदार्थ ( तुमये ) पालन करने योग्य पुत्रादि में (सचा) विद्यमान है, ( उत अयम् ) और यह ( यः तव ) जो तेरा है तू उसे ( पिब ) पालन या उपभोग कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
सोमरूप सम्पत्ति
पदार्थ
[१] 'वेदवाणी' ज्ञानदुग्ध को देनेवाली, प्रभु की धेनु है। विविध ज्ञान ही इस धेनु के (धैनव) = दुग्ध हैं। हे जीव ! तू (स्वधैनवानाम्) = उस परमात्मा [स्व] की वेद-धेनु के इन ज्ञानदुग्धों का (पिब) = पान कर। (उत्) = और (यः) = जो सोम (तुग्र्ये) = [ तुग्र्या = water आप:- रेतः] रेतःकणों के रक्षक पुरुष में [तुग्र्याः अस्य सन्ति इति] (सचा) = समवेत होता है, उस सोम का तू पान कर। [२] (उत) = और हे इन्द्रजितेन्द्रिय पुरुष (अयम्) = यह (यः) = जो सोम है, वह (तव) = तेरा है। यह सोम ही तेरी वास्तविक सम्पत्ति है। यही तेरी ज्ञानाग्नि को दीप्त करके तुझे ज्ञानदुग्धों के पान के योग्य बनायेगा ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम का रक्षण करें। इस प्रकार ज्ञानदुग्धों का पान करनेवाले बनें। यह सोम ही हमारी वास्तविक सम्पत्ति है।
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