ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 16
न नू॒नं ब्र॒ह्मणा॑मृ॒णं प्रा॑शू॒नाम॑स्ति सुन्व॒ताम् । न सोमो॑ अप्र॒ता प॑पे ॥
स्वर सहित पद पाठन । नू॒नम् । ब्र॒ह्मणा॑म् । ऋ॒णम् । प्रा॒शू॒नाम् । अ॒स्ति॒ । सु॒न्व॒ताम् । न । सोमः॑ । अ॒प्र॒ता । प॒पे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न नूनं ब्रह्मणामृणं प्राशूनामस्ति सुन्वताम् । न सोमो अप्रता पपे ॥
स्वर रहित पद पाठन । नूनम् । ब्रह्मणाम् । ऋणम् । प्राशूनाम् । अस्ति । सुन्वताम् । न । सोमः । अप्रता । पपे ॥ ८.३२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
There is no recompense due from men of divinity, from the guests and those actively working for yajna and the extraction of soma. The creator of soma, the giver of knowledge and the social worker do not drink for nothing (they pay with service).
मराठी (1)
भावार्थ
‘‘ऋणँह वै योऽस्ति स जायमान एव देवेभ्य: ऋषिभ्य: पितृभ्यो मनुष्येभ्य: (श १,९,२१) शतपथच्या या वचनानुसार या जगात विद्यमान असलेल्या प्रत्येक माणसावर देवऋण, ऋषिऋण व पितृऋण असतात; परंतु जी ब्राह्मणवृत्ती असणारी व्यक्ती सर्वांच्या हितासाठी कर्म करते तिच्यावर कोणतेही ऋण नसते. ॥१६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नूनम्) निश्चित रूप से ही (सुन्वताम्) यज्ञ सम्पादन हेतु विद्या आदि धन का निष्पन्न कर्ता (प्राशूनाम्) अपने कार्य में नितान्त निष्णात (ब्रह्मणाम्) ब्राह्मणवृत्ति वालों पर (ऋणम्) कोई ऋण नहीं चढ़ता; (सोमः) यथार्थ विद्या आदि का निष्पन्न कर्ता (अप्रता) समृद्ध जन (न पपे) स्वयं नहीं पीता॥१६॥
भावार्थ
संसार में विद्यमान प्रत्येक व्यक्ति पर देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण स्वतः ही आरूढ़ रहते हैं; परन्तु जो ब्राह्मण वृत्ति का व्यक्ति सब के हित के लिए कर्म करता है, उस पर कोई ऋण नहीं चढ़ता ॥१६॥
विषय
उर्ऋण जन।
भावार्थ
( सुन्वताम् ) ऐश्वर्य, अन्नादि उत्पन्न करने वाले, वा ( सुन्वतां ) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने वाले, ( प्राशूनां ) उत्तम मार्ग से जाने वाले, ( ब्रह्मणां ) विद्वान् ब्राह्मणों और ब्रह्मवेत्ताओं का ( नूनं ) निश्चय से कोई (ऋणं न अस्ति ) ऋण शेष नहीं रहता। ( सोमः ) परम ऐश्वर्य वा यज्ञ में सोमरस, उत्तम अन्नादि का भोग भी (अप्रता) कोश न भरने वाले पुरुष को ( न पपे ) प्राप्त नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
'ऋणमुक्ति'
पदार्थ
[१] (नूनम्) = निश्चय से (ब्रह्मणाम्) = ज्ञान का पुञ्ज बननेवाले स्वाध्यायशील पुरुषों का (ऋणं न अस्ति) ऋषि ऋण नहीं रहता। स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान-वृद्धि करते हुए ये पुरुष ऋषि ऋण से उऋण हो जाते हैं। [२] (प्राशूनाम्) = [अश व्याप्तौ ] यज्ञादि कर्मों में व्याप्त होनेवालों का देवऋण नहीं रहता। यज्ञादि के द्वारा वायु आदि देवों को शुद्ध करते हुए ये पुरुष देवऋण से उऋण हो जाते हैं। [३] (सुन्वताम्) = अपने शरीर में सोम का सम्यक् अभिषव करनेवाले, इस सुरक्षित सोम से उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाले पुरुषों का ऋण नहीं है, उत्तम सन्तान को जन्म देकर ये व्यक्ति पितृऋण से उऋण हो जाते हैं। [४] (अप्रता) = [प्रा पूरणे] अपना पूरण न करनेवाले पुरुष से (सोमः) = सोम (न पपे) = नहीं अपने अन्दर पिया जाता। अपना पूरण करनेवाला व्यक्ति सोम को अपने अन्दर सुरक्षित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वाध्याय द्वारा ज्ञानी बनकर ऋषिऋण से, यज्ञादि कर्मों में व्याप्त होकर देवऋण से तथा सोमरक्षण से उत्तम सन्तान को जन्म देकर पितृऋण से मुक्त हों। अपना पूरण करने की कामनावाले होकर सोम का रक्षण करें।
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