ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स गोरश्व॑स्य॒ वि व्र॒जं म॑न्दा॒नः सो॒म्येभ्य॑: । पुरं॒ न शू॑र दर्षसि ॥
स्वर सहित पद पाठसः । गोः । अश्व॑स्य । वि । व्र॒जम् । म॒न्दा॒नः । सो॒म्येभ्यः॑ । पुर॑म् । न । शू॒र॒ । द॒र्ष॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स गोरश्वस्य वि व्रजं मन्दानः सोम्येभ्य: । पुरं न शूर दर्षसि ॥
स्वर रहित पद पाठसः । गोः । अश्वस्य । वि । व्रजम् । मन्दानः । सोम्येभ्यः । पुरम् । न । शूर । दर्षसि ॥ ८.३२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra of such fame and prowess, heroic leader, happy and joyous, you open the gates of knowledge and victory in action and attainment, as you open the stalls of cows and horses and the gates of a fortress for the performers of soma yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
दुष्टांच्या नगराची तोडफोड करणे हे एक इंद्राचे कृत्य आहे. जसा गवळी पशूंना कोंडवाड्यात कोंडून ठेवतो तसे व्यापारी वृत्तीचे लोक राष्ट्राचे धन आपल्या कोषागारात जमा ठेवून राष्ट्राची हानी करतात. इन्द्र राजा त्याला मुक्त करतो. जीवात्म्याच्या ज्ञान व कर्मशक्ती दुर्भावनेच्या वशीभूत होऊन निष्क्रिय होतात. बुद्धी व हृदयाच्या शुद्धीद्वारे जीवात्मा इन्द्र त्यांना मुक्त करून सक्रिय करतो. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शूर) हे पापियों के विनाशक (सः) वह आप इन्द्र (सोम्येभ्यः) सुख सम्पादन योग्य जनों के हित के लिए (मन्दानः) सब को हर्षित करते हुए (गोः अश्वस्य) ज्ञान एवं कर्मशक्ति के (व्रजम्) बाड़े को (पुरं न) एक नगर की तरह विद्यमान को (विदर्षसि) विदीर्ण करते हैं ॥५॥
भावार्थ
इन्द्र का एक कार्य दुष्टों के नगर ढहाना भी है। जिस प्रकार ग्वाला पशुओं को बाड़े में रोके रखता है, ऐसे ही वणिक् वृत्ति जन राष्ट्र का धन अपने कोषागारों में रोक राष्ट्र की हानि करते हैं। इन्द्र अर्थात् राजा उसे मुक्त करता है; जीवात्मा की ज्ञान व कर्मशक्तियाँ दुर्भावनाओं के वशीभूत हो निष्क्रिय हो जाती हैं; बुद्धि तथा हृदय की शुद्धि द्वारा जीवात्मा इन्द्र उन्हें मुक्त कर सक्रियता प्रदान करता है ॥५॥
विषय
शत्रु-विजय का आदेश।
भावार्थ
हे ( शूर ) वीर पुरुष ! तू ( मन्दानः ) प्रसन्न होकर अन्यों को भी प्रसन्न करता हुआ ( सोम्येभ्यः ) ऐश्वर्य के पालन करने में योग्य कुशल पुरुषों के लिये, ( गोः व्रजं ) वाणियों, भूमियों के समूह तथा ( अश्वस्य ) आशुगामी, अश्व सैन्य के ( व्रज्रं ) प्रयाणकारी बल को और (पुरं न वि दर्षसि ) प्राकार या नगरी को विविध प्रकार से विदीर्ण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
व्रज-विदारण
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (मन्दानः) = स्तुति किये जाते हुए (सः) = वे आप (सोम्येभ्यः) = सोम का [वीर्य शक्ति का] रक्षण करनेवाले पुरुषों के लिये (गोः) = ज्ञानेन्द्रियों के तथा (अश्वस्य) = कर्मेन्द्रियों के (व्रजम्) = बाड़े को (विदर्षसि) = विदीर्ण करते हैं। इन इन्द्रियों को विषयों के बाड़े से बाहर करते हैं। प्रभु की उपासना उपासक की इन्द्रियों को विषयों में फँसने से बचाती है, और परिणामतः ये उपासक सोम का रक्षण कर पाते हैं। [२] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप इस विषयों की बाड़ को इस प्रकार विदीर्ण करते हैं, (न) = जैसे (पुरम्) = काम-क्रोध-लोभरूप शत्रुओं की नगरी को आप विनष्ट करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही उपासक की इन्द्रियों को विषयों की बाड़ से बाहर करते हैं और काम आदि शत्रुओं की नगरी का विध्वंस करते हैं।
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