ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 23
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सूर्यो॑ र॒श्मिं यथा॑ सृ॒जा त्वा॑ यच्छन्तु मे॒ गिर॑: । नि॒म्नमापो॒ न स॒ध्र्य॑क् ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्यः॑ । र॒श्मिम् । यथा॑ । सृ॒ज॒ । त्वा॒ । य॒च्छ॒न्तु॒ । मे॒ । गिरः॑ । नि॒म्नम् । आपः॑ । न । स॒ध्र्य॑क् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यो रश्मिं यथा सृजा त्वा यच्छन्तु मे गिर: । निम्नमापो न सध्र्यक् ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यः । रश्मिम् । यथा । सृज । त्वा । यच्छन्तु । मे । गिरः । निम्नम् । आपः । न । सध्र्यक् ॥ ८.३२.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as the sun radiates the rays of light over space, just as waters flow down swift and straight, so may the voice of my soul reach you.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्याचा प्रकाश न मागता स्वाभाविकरीत्या मिळतो. जलाचा स्वाभाविक धर्म असा आहे की, ते खालच्या स्थानी वाहते व खालील भूभागावर जमा होते. तशीच परमैश्वर्यवान परमेश्वराचे गुणगान करणारी माझी वाणी स्वाभाविक असावी. भक्त तेव्हाच भगवंताच्या गुणांना निरंतर ध्यानी ठेवू शकतो जेव्हा स्तुती करणे भक्ताची स्वाभाविक क्रिया बनते. ॥२३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (रश्मिम्) अपना प्रकाश (सृजा) फेंकता है; और (आपः न) जैसे जल (निम्नम्) निचले स्थान पर (सध्र्यक्) एक साथ पहुँच जाता है, ऐसे ही (मे गिरः) मेरी वाणियाँ (त्वा) तुझ इन्द्र को (यच्छन्तु) रोकें ॥२३॥
भावार्थ
सूर्य का प्रकाश बिन माँगे स्वभावतः मिलता है; जल का अपना यह स्वाभाविक धर्म है कि वह नीचे की ओर बहता है और निचले भूभागों को एकदम घेर लेता है; ऐसे ही परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का गुणगान करने वाली मेरी वाणी उसको स्वाभाविक रूप से घेरे रहे। भक्त तभी भगवान् के गुणों को निरन्तर अपने ध्यान में रख सकता है, जबकि स्तुति करना उसकी स्वाभाविक क्रिया बन जाय ॥२३॥
विषय
राजा को वा उत्साही को आदेश उपदेश।
भावार्थ
( यथा सूर्य: रश्मि सृजति ) जिस प्रकार सूर्य तेज और राष्ट्र को व्यापने और रक्षा करने वाला है इसी प्रकार तू ( रश्मिं सृज ) तेज और राष्ट्र को शासन करता भी व्यापने और वश करने वाला शासन कर। ( आपः न सध्र्यक् निम्नम् ) जिस प्रकार जलधाराएं एकही साथ सब नीचे प्रदेश में आकर उसे घेर लेती हैं उसी प्रकार ( मे गिरः ) मेरी वाणियां भी ( त्वा ) तुझ सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को ( आयच्छन्तु ) प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
यथा सूर्यः, आपः न [इव]
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करता हुआ तू यथा (सूर्य:) = जैसे सूर्य होता है, वैसा ही बन। सूर्य की तरह ही रश्मिं सृज - अपने अन्दर ज्ञानरश्मियों को उत्पन्न कर। सूर्य की तरह ही तू प्रकाश को देनेवाला हो। (त्वा) = तुझे (मे गिरः) = मेरी ये वेदरूप ज्ञान की वाणियाँ यच्छन्तु नियमित करनेवाली हों। इनके अनुसार ही तेरा जीवन बने। ये तेरे लिये कार्य व अकार्य की व्यवस्थिति में प्रमाण हों। [२] ये वाणियाँ (सध्यक्) = [सह अञ्चन्ति] मिलकर गति करती हुईं तुझे (आपः न) = जलों की तरह (निम्नम्) = नम्रता के मार्ग में नियमित करनेवाली हों। 'ऋग्' विज्ञान है, 'यजु' कर्म है, 'साम' उपासना। ये तीनों तेरे अन्दर मिलकर गति करें। तू ज्ञानपूर्वक कर्म कर तथा उन कर्मों को प्रभु के प्रति अर्पण करता हुआ प्रभु का उपासक बन। इस प्रकार तू जीवन में नम्र हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने अन्दर ज्ञान के सूर्य का उदय करें। प्रभु की इन वेद-वाणियों के अनुसार जीवन को बनायें । 'ज्ञान, कर्म, उपासना' के मेल से जीवन में नम्रतावाले बनें।
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