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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 14
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ॒य॒न्तारं॒ महि॑ स्थि॒रं पृत॑नासु श्रवो॒जित॑म् । भूरे॒रीशा॑न॒मोज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽय॒न्तार॑म् । महि॑ । स्थि॒रम् । पृत॑नासु । श्र॒वः॒ऽजित॑म् । भूरेः॑ । ईशा॑नम् । ओज॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितम् । भूरेरीशानमोजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽयन्तारम् । महि । स्थिरम् । पृतनासु । श्रवःऽजितम् । भूरेः । ईशानम् । ओजसा ॥ ८.३२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Honour and adore the lord and ruler who is great, controller of the world and its law, constant in the dynamics of existence wherein he is the sole conqueror of honour and glory and who, with his power and grandeur, is the ruler of the vast riches of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवन संघर्षात आपल्या इन्द्रिय वृत्तींना नियंत्रणात ठेवून स्वत: अविचल राहणारा जीवात्मा यश व धन इत्यादी ऐश्वर्याचा स्वामी असतो. ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [उस जीवनशक्ति के दाता के गुणों का गान करो कि] जो (पृतनासु) संघर्षों में (आयन्तारम्) नियन्ता है; (महि) महान् है; (स्थिरम्) दृढ़ता पूर्वक टिकने वाला है व (श्रवोजितम्) कीर्ति प्राप्त करनेवाला है; (ओजसा) बलवीर्य से (भूरेः) विविध प्रकार के धन व ऐश्वर्य का (ईशानम्) स्वामी है ॥१४॥

    भावार्थ

    जीवन के संघर्ष में अपनी इन्द्रिय-वृत्तियों को संयम में रखकर जो अविचल रहता है, वह जीवात्मा यश तथा धनादि ऐश्वर्य का मालिक होता है ॥१४॥

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    विषय

    नियन्ता सर्वविजयी सखा। बड़ा दानी है।

    भावार्थ

    ( आ-यन्तारं ) सब ओर से वश करने वाले, (महि स्थिरं ) महान्, स्थिर, कूटस्थ, ( पृतनासु ) संग्रामों वा सेनाओं के बीच ( श्रवःजितम् ) यश कीर्त्ति को विजय करने वाले और ( ओजसा ) पराक्रम से (भूरेः) बड़े भारी ऐश्वर्य वा जगत् के ( ईशानम् ) स्वामी की ( अभि गायत ) स्तुति करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥

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    विषय

    'यन्ता-जेता-ईशान' प्रभु

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार 'तं इन्द्रं अभिगायत' उस इन्द्र का गायन करो जो (आयन्तारम्) = समन्तात् नियमन करनेवाले हैं, सम्पूर्ण संसार को वश में करनेवाले हैं। (पृतनासु) = संग्रामों में (महि) = महान् (स्थिरम्) = स्थिर (श्रवः जितम्) = यश का विजय करनेवाले हैं। प्रभु कभी पराजित तो होते ही नहीं। [२] उस प्रभु का गायन करो जो (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (भूरेः ईशानम्) = सब पालक व पोषक धनों के स्वामी हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस प्रभु का गायन करें जो 'सर्वनियन्ता, संग्राम विजेता व धनों के ईशान ' हैं।

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