ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
उ॒त नो॒ गोम॑तस्कृधि॒ हिर॑ण्यवतो अ॒श्विन॑: । इळा॑भि॒: सं र॑भेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । गोऽम॑तः । कृ॒धि॒ । हिर॑ण्यऽवतः । अ॒श्विनः॑ । इळा॑भिः । सम् । र॒भे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नो गोमतस्कृधि हिरण्यवतो अश्विन: । इळाभि: सं रभेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत । नः । गोऽमतः । कृधि । हिरण्यऽवतः । अश्विनः । इळाभिः । सम् । रभेमहि ॥ ८.३२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And make us rich in lands and cows, knowledge and culture, make us masters of the golden glories of life. Advance us with horses and victories of high and higher attainments in honour and excellence. And lead us to exert ourselves in unison with songs of adoration and libations of homage and gratitude with holy words of joy.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रशंसनीय धन-विद्या, आरोग्य, सुवर्ण इत्यादी आमच्या अधिकारात राहावे, असा प्रयत्न प्रत्येक व्यक्तीने करावा. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे ऐश्वर्यवान्! (नः) हमें (गोमतः) उत्कृष्ट गौ आदि से युक्त, (हिरण्यवतः) सुवर्ण आदि रत्नवाले और (अश्विनः) वेगवान् अश्व आदि से युक्त (उत) भी करिए; अथवा हम जीव स्वयं ऐसा प्रयास करें कि हमारी कर्मशक्तियाँ व ज्ञान उत्कृष्ट हों तथा ज्ञान आदि उत्कृष्ट साधन हमें मिलें। इस तरह हम (इळाभिः) प्रशंसनीय धनों को (संरभेमहि) भली प्रकार अपने अधिकार में रखें ॥९॥
भावार्थ
प्रशंसा योग्य धन-विद्या, आरोग्य, सुवर्ण इत्यादि हमारे अधिकार में रहें, ऐसा प्रयत्न करना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है ॥९॥
विषय
राजा प्रजा को समृद्ध करे।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! तेजस्विन् ! ( उत ) और तू ( नः ) हमें ( गोमतः ) गौ आदि पशु और भूमि आदि से सम्पन्न ( कृधि ) कर। तू हमें ( हिरण्यवतः अश्विनः ) उत्तम सुवर्ण धन और अश्वों का स्वामी ( कृधि ) कर। हम ( इडाभिः ) नाना उत्तम वाणियों और अन्नों, भूमियों से ( संरभे महि ) अच्छी प्रकार जीवन का सुख प्राप्त करें। ( २ ) हे ( इन्द्र ) आचार्य ! तू हमें ( गोमतः ) वाणी सम्पन्न ( हिरण्यवतः अश्विनः ) आत्मवान् जितेन्द्रिय कर, हम ( इडाभिः ) उत्तम वेदवाणियों से आनन्द लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
गोमतः, हिरण्यवतः अश्विनः
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (नः) = हमें (उत) = निश्चय से (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला (कृधि) = करिये। (हिरण्यवतः) = [हिरण्यं वै वीर्यम्] प्रशस्त वीर्यवाला करिये तथा (अश्विनः) = उत्तम कर्मेन्द्रियरूप अश्वोंवाला करिये। इस हिरण्य-वीर्य के रक्षण के द्वारा ही आप हमें उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंवाला बनाते हैं। [२] हे प्रभो ! आप के अनुग्रह से हम (इडाभिः) = इन वेद-वाणियों के साथ (संरभेमहि) = सम्यक् उद्योगवाले हों। हमारे सब कार्य इन वेद-वाणियों के अनुसार हों। वस्तुतः वीर्यरक्षण द्वारा उत्तम इन्द्रियोंवाले बनकर हम क्यों न उत्तम कार्यों में प्रवृत्त होंगे ?
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से [क] हम वीर्यरक्षण द्वारा प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंवाले बनें, [ख] तथा वेदवाणियों के अनुसार यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें ।
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