ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 28
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यो विश्वा॑न्य॒भि व्र॒ता सोम॑स्य॒ मदे॒ अन्ध॑सः । इन्द्रो॑ दे॒वेषु॒ चेत॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठयः । विश्वा॑नि । अ॒भि । व्र॒ता । सोम॑स्य । मदे॑ । अन्ध॑सः । इन्द्रः॑ । दे॒वेषु॑ । चेत॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वान्यभि व्रता सोमस्य मदे अन्धसः । इन्द्रो देवेषु चेतति ॥
स्वर रहित पद पाठयः । विश्वानि । अभि । व्रता । सोमस्य । मदे । अन्धसः । इन्द्रः । देवेषु । चेतति ॥ ८.३२.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 28
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Celebrate Indra, soul and ruling spirit in nature and humanity, who, in the excitement and ecstasy of the taste of food and soma, awakens in humans and divines the awareness of all the rules and laws of discipline and commitment to the vows of discipline in life.
मराठी (1)
भावार्थ
भोग्य पदार्थांचा सात्विक, राजसिक व तामसिक प्रभाव शरीर, मन व आत्म्यावर पडलेला असतो. जसा प्रभाव तसा त्याचा मद किंवा हर्ष! राष्ट्र-निर्माता किंवा मानव जीवनाचा कर्णधार असलेल्या जीवाने आपल्या दिव्यगुणीं इंद्रियांना सौम्य बनवावे. ॥२८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (अन्धसः) खाने के उपयोग में आने वाले पदार्थों के (सोमस्य) सौम्य रस के (मदे) हर्षदायक प्रभाव में (देवेषु) [राष्ट्र के] दिव्य गुणियों या इन्द्रियों को (विश्वानि) सब (व्रता) कृत्य व नियम (अभि चेतति) सिखाए (इन्द्रः) इन्द्र--राजा या आत्मा वही है ॥२८॥
भावार्थ
खाने-पीने के उपयोग में आने वाले पदार्थों का सात्त्विक, राजसिक व तामसिक प्रभाव शरीर, मन व आत्मा पर पड़ता है; जैसा प्रभाव वैसा ही उसका मद या हर्ष होता है! राष्ट्र-निर्माता अथवा मानव-जीवन के कर्णधार जीव के लिए आवश्यक है कि वह अपनी इन्द्रियों को सौम्य बनाए ॥२८॥
विषय
विद्वानों को उपदेश।
भावार्थ
( यः ) जो ( देवेषु ) इन्द्रियों के बीच में ( अन्धसः मदे ) अन्न से तृप्ति लाभ करके जिस प्रकार आत्मा ( विश्वानि व्रता अभि चेतति ) सब कार्यों को जानता है उसी प्रकार ( यः ) जो पुरुष ( देवेषु ) विद्वानों और विजगीषु पुरुषों के बीच ( सोमस्य मदे ) ऐश्वर्य से तृप्त होने पर वा ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र के शासन-कार्य में ( विश्वानि व्रता अभि ) सब कर्त्तव्यों को ( चेतति ) ठीक जानता है, वह ( इन्द्रः ) 'इन्द्र' है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
व्रतमय जीवन
पदार्थ
[१] (यः) = जो (अन्धसः सोमस्य मदे) = शरीर के भोजनरूप इस सोम के मद में, उल्लास में (विश्वानि व्रता अभि) = सब व्रतों की ओर चलता है। अर्थात् सोम को शरीर में सुरक्षित करता है, इस सोम को शरीर का भोजन बनाता है, वह सदा उत्तम कर्मों में ही प्रवृत्त होता है। सोम का विनाश ही मनुष्य को विलासमयी व पापमयी वृत्ति का बना देता है। [२] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (देवेषु चेतति) = देवताओं के, विद्वानों के सम्पर्क में उत्तरोत्तर अपने ज्ञान को बढ़ाता है। सोमरक्षण से इसकी ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और यह ज्ञान की रुचिवाला बनकर देवों के सम्पर्क से अपने ज्ञान को बढ़ाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम को हम शरीर का भोजन बनायें। इससे उल्लासमय जीवनवाले बनकर व्रती जीवनवाले बनें। विद्वानों के सम्पर्क में अपने ज्ञान को बढ़ायें।
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