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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त नो॒ गोम॑तस्कृधि॒ हिर॑ण्यवतो अ॒श्विन॑: । इळा॑भि॒: सं र॑भेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । गोऽम॑तः । कृ॒धि॒ । हिर॑ण्यऽवतः । अ॒श्विनः॑ । इळा॑भिः । सम् । र॒भे॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो गोमतस्कृधि हिरण्यवतो अश्विन: । इळाभि: सं रभेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । गोऽमतः । कृधि । हिरण्यऽवतः । अश्विनः । इळाभिः । सम् । रभेमहि ॥ ८.३२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! तेजस्विन् ! ( उत ) और तू ( नः ) हमें ( गोमतः ) गौ आदि पशु और भूमि आदि से सम्पन्न ( कृधि ) कर। तू हमें ( हिरण्यवतः अश्विनः ) उत्तम सुवर्ण धन और अश्वों का स्वामी ( कृधि ) कर। हम ( इडाभिः ) नाना उत्तम वाणियों और अन्नों, भूमियों से ( संरभे महि ) अच्छी प्रकार जीवन का सुख प्राप्त करें। ( २ ) हे ( इन्द्र ) आचार्य ! तू हमें ( गोमतः ) वाणी सम्पन्न ( हिरण्यवतः अश्विनः ) आत्मवान् जितेन्द्रिय कर, हम ( इडाभिः ) उत्तम वेदवाणियों से आनन्द लाभ करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥

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