ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 10
आहं सर॑स्वतीवतोरिन्द्रा॒ग्न्योरवो॑ वृणे । याभ्यां॑ गाय॒त्रमृ॒च्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒हम् । सर॑स्वतीऽवतोः । इ॒न्द्रा॒ग्न्योः । अवः॑ । वृ॒णे॒ । याभ्या॑म् । गा॒य॒त्रम् । ऋ॒च्यते॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आहं सरस्वतीवतोरिन्द्राग्न्योरवो वृणे । याभ्यां गायत्रमृच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अहम् । सरस्वतीऽवतोः । इन्द्राग्न्योः । अवः । वृणे । याभ्याम् । गायत्रम् । ऋच्यते ॥ ८.३८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
विषय - उनके तुल्य परस्पर सहायकों और विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
( अहं ) मैं ( सरस्वतीवतोः ) उत्तम वेदवाणी वाले ( इन्द्राग्न्योः ) ऐश्वर्य और तेज को धारण करने वाले ज्ञानी स्त्री पुरुषों के ( अव: ) ज्ञान और रक्षा की ( वृणे ) याचना करता हूं, ( याभ्याम् ) जिनके आदरार्थ ( गायत्रम् ) गायत्री मन्त्र वा गायत्र साम द्वारा ( ऋच्यते ) स्तुति की जाती है। उसी प्रकार प्रशस्त ज्ञानमयी विद्या और उत्तम स्त्री 'सरस्वती' कहाती है। उनके स्वामी ऐश्वर्यवान् और ज्ञानवान् पुरुषों के ज्ञान और रक्षा को चाहूं। (याभ्यां) वे गायत्री का उपदेश करें। इत्येकविंशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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