ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
अग्ने॒ मन्मा॑नि॒ तुभ्यं॒ कं घृ॒तं न जु॑ह्व आ॒सनि॑ । स दे॒वेषु॒ प्र चि॑किद्धि॒ त्वं ह्यसि॑ पू॒र्व्यः शि॒वो दू॒तो वि॒वस्व॑तो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । मन्मा॑नि । तुभ्य॑म् । कम् । घृ॒तम् । न । जु॒ह्वे॒ । आ॒सनि॑ । सः । दे॒वेषु॑ । प्र । चि॒कि॒द्धि॒ । त्वम् । हि । असि॑ । पू॒र्व्यः । शि॒वः । दू॒तः । वि॒वस्व॑तः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने मन्मानि तुभ्यं कं घृतं न जुह्व आसनि । स देवेषु प्र चिकिद्धि त्वं ह्यसि पूर्व्यः शिवो दूतो विवस्वतो नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । मन्मानि । तुभ्यम् । कम् । घृतम् । न । जुह्वे । आसनि । सः । देवेषु । प्र । चिकिद्धि । त्वम् । हि । असि । पूर्व्यः । शिवः । दूतः । विवस्वतः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
विषय - अग्नि, ज्ञानी और अग्रणी नेता पुरुष के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! ( घृतं न आसनि जुह्वति ) जिस प्रकार अग्नि के मुख अर्थात् ज्वाला में यज्ञकर्त्ता लोग घृत की आहुति देते हैं उसी प्रकार हे शिष्य वा विद्वन् ! मैं शिष्य (तुभ्यं आसनि) तेरे हितार्थ तेरे मुख में ( मन्मानि ) मनन करने योग्य ज्ञानयुक्त वचनों को (जुह्वे) प्रदान करता हूं तू उनको मुख में धारण कर, ( सः ) वह तू ( प्र चिकिद्धि ) अच्छी प्रकार जान, ( हि त्वं ) क्योंकि तू (पूर्व्यः) पूर्ण ज्ञानी, उत्तम पद योग्य वा पूर्व ब्रह्मचर्यावस्था में विद्यमान (शिवः) कल्याणकारी, सौम्य, (विवस्वतः) विविध विद्यार्थी रूप वसुओं के स्वामी गुरु आचार्य का ( दूतः ) ज्ञानमय संदेश को दूर तक पहुंचाने में दूत के ( समान ही (असि) है। इस प्रकार ज्ञान धारण करते हुए के (समे अन्यके) समस्त अन्य तुच्छ विरोधी विघ्नकारक जन ( नभन्ताम् ) नष्ट हों। गुरु जिस प्रकार अपना वचन शिष्य में धारण कराता या आहुतिकर्त्ता घृत को अग्नि के मुख में देता है उसी प्रकार राजादि भी विद्वान् पुरुष के मुख में अपना सुविचारित वचन स्थापित कर अन्य प्रजा वा राजान्तर के प्रति संदेशार्थ भेजें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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