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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अग्ने॒ मन्मा॑नि॒ तुभ्यं॒ कं घृ॒तं न जु॑ह्व आ॒सनि॑ । स दे॒वेषु॒ प्र चि॑किद्धि॒ त्वं ह्यसि॑ पू॒र्व्यः शि॒वो दू॒तो वि॒वस्व॑तो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । मन्मा॑नि । तुभ्य॑म् । कम् । घृ॒तम् । न । जु॒ह्वे॒ । आ॒सनि॑ । सः । दे॒वेषु॑ । प्र । चि॒कि॒द्धि॒ । त्वम् । हि । असि॑ । पू॒र्व्यः । शि॒वः । दू॒तः । वि॒वस्व॑तः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने मन्मानि तुभ्यं कं घृतं न जुह्व आसनि । स देवेषु प्र चिकिद्धि त्वं ह्यसि पूर्व्यः शिवो दूतो विवस्वतो नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । मन्मानि । तुभ्यम् । कम् । घृतम् । न । जुह्वे । आसनि । सः । देवेषु । प्र । चिकिद्धि । त्वम् । हि । असि । पूर्व्यः । शिवः । दूतः । विवस्वतः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of yajna, as I offer charming oblations of ghrta into the fire I offer hymns of adorations to you. Pray know and accept these among and with other divinities. You are the oldest, eternal and gracious messenger of the sun. May all negativities and adversities vanish.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी सदैव परमेश्वराच्या गुणांचे स्तवन करावे. तोच प्रभू सदैव सुखकारक आहे. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तदीयगुणकीर्तनम् ।

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वशक्ते ! घृतन्न=घृतमिव । तुभ्यम्=तव प्रीत्यर्थम् । अहम् । असनि=मनुष्याणं मुखे । मन्मानि=मननीयानि स्तोत्राणि । कम्=सुखेन । जुह्वे । देवेषु प्रसिद्धः । स त्वम् । ममैतत्कार्य्यम् । प्रचिकिद्धि=जानीहि । त्वं हि । पूर्व्यः=पुरातनोऽसि । शिवो दूतश्चासि । अतस्तव कृपया । अन्यके=अन्ये । समे=सर्वे । विवस्वतः=विवस्वतो मनुष्याः । नभन्ताम्=विनश्यन्तु ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उसके गुणों का कीर्तन करते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वशक्तिमन् ! (तुभ्यम्) तेरी प्रीति के लिये (आसनि) विद्वान् मनुष्यों के मुख में (घृतम्+न) घृत के समान (मन्मानि) मननीय स्तोत्रों को (जुह्वे) होमता हूँ । (देवेषु) देवों में सुप्रसिद्ध (सः) वह तू (पूर्व्यः) पुरातन (शिवः) सुखकारी और (दूतः) दूत के समान है, अतः तेरी कृपा से (अन्यके+समे) अन्य सब ही दुष्ट मनुष्य (नभन्ताम्) विनष्ट हो जावें ॥३ ॥

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    विषय

    अग्नि, ज्ञानी और अग्रणी नेता पुरुष के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! ( घृतं न आसनि जुह्वति ) जिस प्रकार अग्नि के मुख अर्थात् ज्वाला में यज्ञकर्त्ता लोग घृत की आहुति देते हैं उसी प्रकार हे शिष्य वा विद्वन् ! मैं शिष्य (तुभ्यं आसनि) तेरे हितार्थ तेरे मुख में ( मन्मानि ) मनन करने योग्य ज्ञानयुक्त वचनों को (जुह्वे) प्रदान करता हूं तू उनको मुख में धारण कर, ( सः ) वह तू ( प्र चिकिद्धि ) अच्छी प्रकार जान, ( हि त्वं ) क्योंकि तू (पूर्व्यः) पूर्ण ज्ञानी, उत्तम पद योग्य वा पूर्व ब्रह्मचर्यावस्था में विद्यमान (शिवः) कल्याणकारी, सौम्य, (विवस्वतः) विविध विद्यार्थी रूप वसुओं के स्वामी गुरु आचार्य का ( दूतः ) ज्ञानमय संदेश को दूर तक पहुंचाने में दूत के ( समान ही (असि) है। इस प्रकार ज्ञान धारण करते हुए के (समे अन्यके) समस्त अन्य तुच्छ विरोधी विघ्नकारक जन ( नभन्ताम् ) नष्ट हों। गुरु जिस प्रकार अपना वचन शिष्य में धारण कराता या आहुतिकर्त्ता घृत को अग्नि के मुख में देता है उसी प्रकार राजादि भी विद्वान् पुरुष के मुख में अपना सुविचारित वचन स्थापित कर अन्य प्रजा वा राजान्तर के प्रति संदेशार्थ भेजें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    घृतं मन्मानि

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (तुभ्यं) = आपकी प्राप्ति के लिए मैं (आसनि) = मुख में (कं घृतं) = सुखकर ज्ञानदीप्ति को [घृ दीप्तौ] तथा (मन्मानि) = स्तोत्रों को (जुवे) = आहुत करता हूँ, अर्थात् मेरा मुख ज्ञान की वाणियों को तथा स्तुतिवचनों को ही उच्चारित करनेवाला बनता है । [२] (स त्वं) = वे आप (देवेषु प्रचिकिद्धि) = सूर्य आदि सब देवों के विषय में हमें ज्ञानयुक्त कीजिए । (त्वं हि) = आप ही (पूर्व्यः असि) = सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले हैं। उस समय आप ही तो ज्ञान देनेवाले हैं। आप (शिवः) = कल्याण करनेवाले हैं तथा (विवस्वतः दूतः) = विवस्वान् के दूत हैं- जो भी ज्ञान के सूर्य हैं उनके लिए भी ज्ञान के सन्देश को देनेवाले हैं। इस ज्ञान के होने पर (समे) = सब अन्यके शत्रु (नभन्ताम्) = विनष्ट हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभुप्राप्ति के लिए हम ज्ञान व स्तवन की ओर झुकते हैं। प्रभु ही हमें सब सूर्य आदि देवों के विषय में ज्ञान देते हैं। ज्ञान देकर प्रभु हमारा कल्याण करते हैं।

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