ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न्य॑ग्ने॒ नव्य॑सा॒ वच॑स्त॒नूषु॒ शंस॑मेषाम् । न्यरा॑ती॒ ररा॑व्णां॒ विश्वा॑ अ॒र्यो अरा॑तीरि॒तो यु॑च्छन्त्वा॒मुरो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठनि । अ॒ग्ने॒ । नव्य॑सा । वचः॑ । त॒नूषु॑ । शंस॑म् । ए॒षा॒म् । नि । अरा॑तीः । ररा॑व्णाम् । विश्वाः॑ । अ॒र्यः । अरा॑तीः । इ॒तः । यु॒च्छ॒न्तु॒ । आ॒ऽमुरः॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यग्ने नव्यसा वचस्तनूषु शंसमेषाम् । न्यराती रराव्णां विश्वा अर्यो अरातीरितो युच्छन्त्वामुरो नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठनि । अग्ने । नव्यसा । वचः । तनूषु । शंसम् । एषाम् । नि । अरातीः । रराव्णाम् । विश्वाः । अर्यः । अरातीः । इतः । युच्छन्तु । आऽमुरः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and fire, by this new word of adoration may the negativities of thought and emotion in the personalities of these yajakas, frustrations of the bountiful, all adversaries and adversities, all stupidity, violence and enemies go away and vanish from here.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही प्राचीन व अर्वाचीन दोन्ही भाषांचा विकास करावा व अनाथ इत्यादींना सदैव दान करावे. जे दान देत नाहीत त्यांना दंड किंवा उपदेश देऊन दान देण्यास भाग पाडावे. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
शत्रुविनाशाय प्रार्थना ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वशक्ते ! एषाम्=अस्माकम् । तनूषु=शरीरेषु । शंसम्=प्रशंसनीयम् । वचः । नव्यसा=नवतरेण वचसा सह । नि=नितराम् । वर्धय । रराव्णम्=दातॄणामस्माकम् । विश्वाः=सर्वाः । अरातीः=शत्रून् । निदह । पुनः । इतः स्थानात् । आमुरः=आमूढाः । अरातीः=अरातारः=अदातारः । अर्य्यः=अरयः शत्रवः । युच्छन्तु=गच्छन्तु । शेषं पूर्ववत् ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
शत्रु के विनाश के लिये प्रार्थना ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वशक्तिमन् ईश ! (एषाम्) इन हम लोगों के (तनूषु) शरीर में (शंसम्) प्रशंसनीय (वचः) वचन को (नव्यसा) नूतन वचन के साथ बढ़ा । (रराव्णम्) दाताओं के (विश्वाः+अरातीः) सर्व शत्रुओं को (नि) दूर कीजिये । पुनः (इतः) इस संस्था से (आमूरः) मूर्ख (अरातीः) और अदाता (अर्य्यः) शत्रुगण (युच्छन्तु) यहाँ से दूर चले जाएँ । शेष पूर्ववत् ॥२ ॥
भावार्थ
हम लोग प्राचीन भाषा और नवीन भाषा दोनों की उन्नति करें और अनाथादिकों को सदा दान किया करें, जो न देवें, उन्हें शिक्षा देकर दानपथ पर लावें ॥२ ॥
विषय
उसके ज्ञान प्रकाश द्वारा क्रम से विघ्नों और दुष्टों का नाश।
भावार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! तेजस्विन् ! ( एषां तनूषु ) इनके शरीरों या आत्माओं में ( नव्यसा वचः ) अति नवीन, स्तुति वचन से ( शंसं ) उत्तम उपदेश (निधेहि) स्थापित कर, वे विद्वान् बनें। अथवा—( नव्यसा वचः तनूषु एषां शं नियुच्छ) अपने स्तुति वचन से हमारे शरीरों पर आने वाले इनके किये प्रहारों को दूर कर और ( रराव्णां ) दानशीलों के बीच जो ( अराती: ) अदानशील हैं उन ( विश्वाः ) सबको (अर्यः)। स्वामी होकर तू निकाल, दण्डित कर। और (आमुरः) मूढ़ या सर्वत्र मारामारी करने वाले हिंसक (अरातीः) शत्रु लोग भी ( इतः नि युच्छन्तु ) इस राष्ट्र से दूर हो जावें। और ( समे अन्यके ) समस्त अन्य शत्रु दुष्ट जन ( नभन्ताम् ) नष्ट हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
स्तुति व यज्ञशीलता से शत्रुपराभव
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (नव्यसा वचः) = [ वचसा] स्तुत्य [प्रशस्य] वचनों के द्वारा (तनूषु) = हमारे शरीरों में (एषां) = इन शत्रुओं के (शंसं) = [Charm, Spell ] जादू को (नि) [युच्छ ] = दूर कर । (रराव्णां हवि) = के देनेवाले यज्ञशील पुरुषों के (अरातीः) = शत्रुओं को नि [युच्छ ] = दूर करिए । [२] हे प्रभो! आपके अनुग्रह से (विश्वा) = सब (अर्य:) = आक्रमण करनेवाले (आमुरः) = समनत् हिंसन करनेवाले (अरातीः) = शत्रु (इतः) = यहाँ से (युच्छन्तु) = [गच्छन्तु] चले जाएँ। (समे) = सारे (अन्यके नभन्ताम्) = शत्रु नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु-स्तवन से हम शत्रुओं के जादू को समाप्त करनेवाले हैं। यज्ञशील बनकर सब शत्रुओं को दूर करनेवाले हों।
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