ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑ग्नी यु॒वं सु न॒: सह॑न्ता॒ दास॑थो र॒यिम् । येन॑ दृ॒ळ्हा स॒मत्स्वा वी॒ळु चि॑त्साहिषी॒मह्य॒ग्निर्वने॑व॒ वात॒ इन्नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । यु॒वम् । सु । नः॒ । सह॑न्ता । दास॑थः । र॒यिम् । येन॑ । दृ॒ळ्हा । स॒मत्ऽसु॑ । आ । वी॒ळु । चि॒त् । स॒हि॒षी॒महि॑ । अ॒ग्निः । वना॑ऽइव । वाते॑ । इत् । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी युवं सु न: सहन्ता दासथो रयिम् । येन दृळ्हा समत्स्वा वीळु चित्साहिषीमह्यग्निर्वनेव वात इन्नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राग्नी इति । युवम् । सु । नः । सहन्ता । दासथः । रयिम् । येन । दृळ्हा । समत्ऽसु । आ । वीळु । चित् । सहिषीमहि । अग्निः । वनाऽइव । वाते । इत् । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र, अग्नि, वायु, आग के समान विद्वानों के ज्ञान और तेजस्वी नायक के तेज, पराक्रम से दुष्टों का नाश।
भावार्थ -
हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र, ऐश्वर्यवन् वा वायुवत् बलशालिन् ! हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! राजन् ! सेनापते ! ( युवं ) आप दोनों (सहन्ता) शत्रुओं को पराजय करते हुए ( नः रयिम् दासथः ) हमें वह ऐश्वर्य और बल प्रदान करो जिस प्रकार ( अग्निः वाते वना इव ) वायु के बहते समय अग्नि बनों को भस्म कर देता है उसी प्रकार ( येन ) जिस ऐश्वर्य के बल से हम लोग ( समत्सु ) संग्रामों में (वीडुचित्) बड़े २ बलशाली और ( दृढ़ा ) दृढ़, शत्रु सैन्यों को ( साहिषीमहि ) पराजित करते हैं और जिस (अन्यके समे नभन्ताम् ) अन्य सब हमारे शत्रु नाश को प्राप्त हों। वायु और अग्निवत् ही इन्द्र और अग्नि परस्पर सहायक हों। अध्यात्म में—इन्द्र आत्मा और अग्नि आप दोनों मिलकर 'रयिं' मूर्त्तिमान् इस देह को ( दासथः ) दास या भृत्यवत् संचालित करते हैं और समस्त विघ्न विनष्ट होते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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