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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नृ॒वद्द॑स्रा मनो॒युजा॒ रथे॑न पृथु॒पाज॑सा । सचे॑थे अश्विनो॒षस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ॒ऽवत् । द॒स्रा॒ । म॒नः॒ऽयुजा॑ । रथे॑न । पृ॒थु॒ऽपाज॑सा । सचे॑थे॒ इति॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒षस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृवद्दस्रा मनोयुजा रथेन पृथुपाजसा । सचेथे अश्विनोषसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नृऽवत् । दस्रा । मनःऽयुजा । रथेन । पृथुऽपाजसा । सचेथे इति । अश्विना । उषसम् ॥ ८.५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे ( दस्रा ) दर्शनीय वा दुष्टों वा शरीरस्थ दोषों के नाश करने वाले स्त्री पुरुषो ! मुख्य नायको, प्राण उदानवत् हे ( अश्विना ) दो अश्वों पर चढ़े नायकों के समान अश्वों, इन्द्रियों और मन के स्वामी जितेन्द्रिय, जितमनस्क जनो ! ( नृवत् ) दो नायकों के समान आप दोनों ( मनः-युजा ) मन रूप सारथि या अश्व की शक्ति से युक्त ( पृथु-पाजसा ) अधिक बलशाली ( रथेन ) दृढ़ रथदेह से युक्त होकर ( उषसम् सचेथे ) अपने चाहने वाले को प्राप्त होओ । ( २ ) दो वीर नायक शत्रुपीड़क सेना को प्राप्त करें। ( ३ ) प्राण उदान मनोयोग युक्त रथ अर्थात् व्यापार से अर्थात् योगाभ्यासवश विशोका रूप उषा को प्राप्त करावें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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