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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नृ॒वद्द॑स्रा मनो॒युजा॒ रथे॑न पृथु॒पाज॑सा । सचे॑थे अश्विनो॒षस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ॒ऽवत् । द॒स्रा॒ । म॒नः॒ऽयुजा॑ । रथे॑न । पृ॒थु॒ऽपाज॑सा । सचे॑थे॒ इति॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒षस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृवद्दस्रा मनोयुजा रथेन पृथुपाजसा । सचेथे अश्विनोषसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नृऽवत् । दस्रा । मनःऽयुजा । रथेन । पृथुऽपाजसा । सचेथे इति । अश्विना । उषसम् ॥ ८.५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ ज्ञानयोगिकर्मयोगिनावुपलक्ष्य प्रातर्भ्रमणं सुखदमिति कथ्यते।

    पदार्थः

    (दस्रा, अश्विना) दर्शनीयौ ज्ञानयोगिकर्मयोगिनौ स्वराष्ट्रं द्रष्टुं वायुं सेवितुं च (नृवत्) साधारणमनुष्यवत् (पृथुपाजसा) अतिबलिना (मनोयुजा, रथेन) इच्छागामिवाहनेन (उषसम्) उषःकालम् (सचेथे) सेवेते ॥२॥

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    विषयः

    प्रभाते प्रथमं राजभिः किमनुष्ठेयमिति शिक्षते ।

    पदार्थः

    हे दस्रा=दस्रौ दर्शनीयौ शत्रूणामुपक्षयितारौ वा । हे अश्विना=अश्विनौ मनुष्यसमूहविधातारौ राजामात्यौ ! युवां प्रथमम् । नृवत्=यथा नरौ=नेतारौ आचरतस्तथा । रथेन । बहिर्गत्वा । उषसम्=प्रभातं तत्कालिकं वायुम् । सचेथे−सचेथां=सेवेथाम् । कीदृशेन रथेन । मनोयुजा=मनो यत्र युज्यते मनोहरेणेत्यर्थः । पुनः । पृथुपाजसा=विस्तीर्णबलेन=दृढेनेत्यर्थः ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी का उषाकाल सेवी होना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (दस्रा, अश्विना) दर्शनीय ज्ञानयोगी और कर्मयोगी अपना राष्ट्र देखने तथा प्रातःकालिक वायुसेवन के लिये (नृवत्) साधारण मनुष्य के समान (पृथुपाजसा) अतिवेगवाले (मनोयुजा, रथेन) इच्छागामी रथ द्वारा (उषसम्) उषाकाल का (सचेथे) सेवन करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी उषाकाल में जागकर वेदप्रतिपादित सन्ध्या अग्निहोत्रादि कर्मों से निवृत्त हो स्वेच्छाचारी रथपर बैठ कर अपने राष्ट्र का प्रबन्ध देखने तथा उस काल का वायुसेवन करने के लिये जाते हैं। जो पुरुष कर्मयोगी के इस आचरण का सेवन करते हैं, वे भी बुद्धिमान् तथा ऐश्वर्य्यवान् और दीर्घजीवी होकर अनेक प्रकार के सुख अनुभव करते हैं ॥२॥

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    विषय

    प्रभात में प्रथम राजाओं को क्या करना चाहिये, यह शिक्षा देते हैं ।

    पदार्थ

    (दस्रा) हे दर्शनीय अथवा हे शत्रुओं के विनाशयिता (अश्विना) हे मनुष्यसमूह विधाता राजा और अमात्य ! आप दोनों (नृवत्) नेता पुरुषों को जैसा उचित है, वैसा सज-धजकर (रथेन) रथद्वारा प्रथम (उषसम्) बाहर जाकर प्रभात काल का वायु (सचेथे) सेविये । वह रथ कैसा होना चाहिये तो (मनोयुजा) मनोहर, सुन्दर पुनः (पृथुपाजसा) विस्तीर्णबल अर्थात् दृढ ॥२ ॥

    भावार्थ

    सर्व कल्याणाभिलाषी जनों को उचित है कि प्रातःकाल उठ बाहर जा आवश्यक और स्नान कर, सन्ध्या के पश्चात् ईश्वर का ध्यान करें ॥२ ॥

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    विषय

    उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( दस्रा ) दर्शनीय वा दुष्टों वा शरीरस्थ दोषों के नाश करने वाले स्त्री पुरुषो ! मुख्य नायको, प्राण उदानवत् हे ( अश्विना ) दो अश्वों पर चढ़े नायकों के समान अश्वों, इन्द्रियों और मन के स्वामी जितेन्द्रिय, जितमनस्क जनो ! ( नृवत् ) दो नायकों के समान आप दोनों ( मनः-युजा ) मन रूप सारथि या अश्व की शक्ति से युक्त ( पृथु-पाजसा ) अधिक बलशाली ( रथेन ) दृढ़ रथदेह से युक्त होकर ( उषसम् सचेथे ) अपने चाहने वाले को प्राप्त होओ । ( २ ) दो वीर नायक शत्रुपीड़क सेना को प्राप्त करें। ( ३ ) प्राण उदान मनोयोग युक्त रथ अर्थात् व्यापार से अर्थात् योगाभ्यासवश विशोका रूप उषा को प्राप्त करावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सबलता व एकाग्रता

    पदार्थ

    [१] (नृवद् दस्त्रा) = एक उत्तम नेता के समान दुःखों का उपक्षय करनेवाले (अश्विना) = प्राणापान (उषसं सचेथे) = उषा के साथ संगत होते हैं। अर्थात् हम उषाकाल में उद्बुद्ध होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं। ये प्राणापान ही हमारे दुःखों का विनाश करते हैं, ये ही हमें नीरोग व निर्मल बनाते हैं। [२] ये प्राणापान (रथेन) = उस शरीर रथ से हमें प्राप्त होते हैं जो (मनोयुजा) = उत्तम मन से युक्त है तथा (पृथुपाजसा) = विशाल शक्तिवाला है। प्राणसाधना से शरीर शक्ति सम्पन्न बनता है तो मन इधर-उधर भटकनेवाला न होकर एकाग्र होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उषाकाल में प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों यह साधना हमारे रोगों व मलों का क्षय करेगी। हमें यह सबल व एकाग्र मनोवृत्तिवाला बनायेगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The Ashvins, wondrous charming divine currents of complementary energies, the yajamana and the participants, the yogi dedicated to knowledge and karma, devout men and women arise and move by the vast and strong chariot of the mind and spiritual energies and go forward to share the divine glory of the dawn like world leaders.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानयोगी व कर्मयोगी उष:काली जागुन वेदप्रतिपादित संध्या-अग्निहोत्र इत्यादी कर्म करून इच्छागामी बनून रथात बसून आपल्या राष्ट्राचा प्रबंध पाहण्यासाठी व सकाळच्या वायूचे सेवन करण्यासाठी जातात. जे पुरुष कर्मयोग्याच्या आचरणाचे सेवन करतात तेही बुद्धिमान, ऐश्वर्यवान व दीर्घजीवी बनून अनेक प्रकारे सुखाचा अनुभव घेतात. ॥२॥

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